[PDF*] पानीपत के युद्ध ( Wars of Panipat )

पानीपत के युद्ध ( Wars of Panipat )

पानीपत एक गाँव है , जो वर्तमान भारतीय राज्य हरियाणा में स्थित है ।

पानीपत वो स्थान है , जहाँ बारहवीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत के नियंत्रण को लेकर तीन भाग्य - निर्णायक लडाईयाँ लड़ी गईं , जिन्होंने भारतीय इतिहास की धारा ही मोड़ दी ।

पौराणिक कथा के अनुसार , पानीपत महाभारत के समय पाण्डव बंधुओं द्वारा स्थापित पाँच शहरों ( प्रस्थ ) में से एक था इसका ऐतिहासिक नाम पांडुप्रस्थ है ।

पानीपत की प्रथम लड़ाई ( 21 अप्रैल , 1526 ई . )

पानीपत की पहली लड़ाई को दिल्ली के अंतिम सुलतान इब्राहिम लोदी और मुगल आक्रमणकारी बाबर के बीच हुई ।

बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए पंजाब के तत्कालीन सूबेदार दौलत खां लोदी ने अपने पुत्र दिलावर खां को बाबर के पास निमंत्रण लेकर भेजा था ।

दूसरी ओर मेवाड़ के शासक राणा सांगा तथा बिहार के सूबेदार दरिया खां नोहानी ने भी बाबर को आगरा पर आक्रमण के लिए प्रेरित किया ।

इस युद्ध में इब्राहिम लोदी के पास एक लाख संख्या तक की फ़ौज थी । उधर काबुल के तैमूरी शासक ज़हीरउद्दीन मोहम्मद बाबर के पास मात्र 12,000 फ़ौज तथा बड़ी संख्या में तोपें थीं ।

यह इतिहास की उन पहली लड़ाइयों में से एक थी जिसमें बारूद , आग्नेयास्त्रों और मैदानी तोपखाने को लड़ाई में शामिल किया गया था ।

रणविद्या , सैन्य - संचालन की श्रेष्ठता और विशेषकर तोपों के नए और प्रभावशाली प्रयोग के कारण बाबर ने इब्राहिम लोदी के ऊपर निर्णयात्मक विजय प्राप्त की ।

बाबर के इस युद्ध में विजयी होने के मुख्य कारण उसके द्वारा लायी तोपें एवं मध्य एशियाई युद्धक नीतियां थीं : -

इनमें से एक थी तोपों एवं गाड़ियों को आपस में जोड़ने की उस्मानी या रूमी पद्धति , दूसरी नीति घूमकर पीछे से हमला करने की उजबेक युक्ति थी , जिसे तुलगुमा पद्धति कहा जाता था ।

इस युद्ध में बाबर के तोपची “ उस्ताद अली कुली एवं मुस्तफा ” थे । तोपों का संचालन उस्ताद अली ने जबकि बन्दूकचियों का संचालन मुस्तफा ने किया था ।

इब्राहिम लोदी का चाचा आलम खां ने भी युद्धस्थल में बाबर की हरसंभव सहायता की थी ।

इब्राहिम लोदी ने रणभूमि में ही प्राण त्याग दिया तथा बाबर ने उसे वहीं दफना दिया । रणभूमि में शहीद होने वाला यह मध्यकाल का प्रथम शासक था ।

इस युद्ध में इब्राहिम लोदी का मित्र एवं ग्वालियर का राजा विक्रमजीत भी इब्राहिम किओर से युद्ध करता हुआ मारा गया ।

इस युद्ध को जीतने के बाद बाबर को आगरे में लोदियों का एकत्र किया हुआ खजाना तथा विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर हीरा प्राप्त हुआ जिसे हमायूँ ने ग्वालियर के दिवंगत राजा विक्रमजीत से प्राप्त किया था । इस हीरे का वजन 320 रत्ती था ।

बाबर ने इस युद्ध को जीतने की खुशी में काबुल के प्रत्येक निवासी को ' शाहरुख ' नामक चांदी का सिक्का उपहारस्वरूप दिया था । बाबर की इस महान उदारता के चलते उसे ' कलन्दर ' की उपाधि से विभूषित किया गया ।

पानीपत की पहली लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा पर बाबर का अधिकार हो गया और उससे भारत में मुगल राजवंश का शासन प्रचालन हुआ ।

पानीपत की दूसरी लड़ाई ( 5 नवम्बर , 1556 ई . )

पानीपत की दूसरी लड़ाई 5 नवंबर 1556 को अकबर और हेमचन्द्र विक्रमादित्य ( हेमू ) के बीच लड़ी गई थी । इस युद्ध में अकबर का सेनापति बैरम खां जबकि हेमू आदिलशाह सूरी ( सूर वंश ) के सेनापति थे ।

हेमचन्द्र उत्तर भारत के राजा थे तथा हरियाणा के रेवाड़ी से सम्बन्ध रखते थे । वहाँ कभी वो नमक के व्यापारी थे तथा सम्भवतः वैश्य ( बनिया ) जाति से सम्बन्धित थे । अपनी योग्यता के बल पर वे आदिलशाह के सेनापति एवं वजीर बने थे ।

इसके पहले कभी हेमचन्द्र ने मुगलों की सेना को हरा कर आगरा और दिल्ली के बड़े राज्यों पर कब्जा कर लिया था । दिल्ली पर अधिकार करने के बाद हेमू ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी । विक्रमादित्य के रूप में भी जाना जाता है ।

यह राजा हेमचन्द्र पंजाब से बंगाल तक 1553 - 1556 ई के बीच अफगान विद्रोहियों के खिलाफ 22 युद्धों को जीत चुका था और 7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली में पुराना किला में अपना राज्याभिषेक भी किया था और उसने पानीपत की दूसरी लड़ाई से पहले उत्तर भारत में ‘ हिन्दू राज ’ की स्थापना की थी ।

भारतीय इतिहास में विक्रमादित्यों की कुल संख्या - 14 थी । हेमू या हेमचन्द्र को अन्तिम विक्रमादित्य माना जाता है ।

हेमचन्द्र के पास अकबर से कहीं अधिक बड़ी सेना थी और उसके पास 1500 हाथी भी थे । प्रारम्भ में मुगल सेना के मुकाबले में हेमू की सेना जीत रही थी , लेकिन संयोगवश अचानक हेमू की आँख में एक तीर आकर घुस गया और उसने अपनी इन्द्रियों पर से नियंत्रण खो दिया ।

हेमू हाथी पर बैठकर युद्ध कर रहा था तीर लगने से हेमू अचेत होकर गिर पड़ा । तभी किसी ने हाथी की पीठ पर अपने राजा को न देखकर उसकी सेना में भगदड़ मच गई और वो तितर - वितर होकर भाग खड़ी हई । हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे किशोर अकबर के सामने ले जाया गया । अकबर ने बैरम खां के कहने पर उसका सर धड़ से अलग कर दिया ।

उसके सिर को काबुल भेजा गया और उसके धड़ को दिल्ली में पुराना किला के बाहर लटका दिया गया था ।

पानीपत की इस दूसरी लड़ाई ने उत्तर भारत में हेमू द्वारास्थापित ' हिन्दूराज ' को समाप्त कर दिया ।

पानीपत की दूसरी लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा अकबर के कब्जे में आ गए । इस लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली के तख्त के लिए मुगलों और अफगानों बीच चलनेवाला संघर्ष अन्तिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षो तक दिल्ली का तख़्त मुगलों के पास रहा ।

पानीपत की तीसरी लड़ाई ( 14 जनवरी , 1761 ई . )

पानीपत की तीसरी लड़ाई 1761 में अफगान आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली और पुणे के सदाशिवराव भाऊ पेशवा के तहत मराठों के बीच लड़ा गया था । यह लडाई अहमद शाह अब्दाली ने सदाशिवराव भाऊ को हराकर जीत ली थी । यह हार इतिहास मे मराठों की सबसे बुरी हार थी ।

इस युद्ध मे दोआब के अफगान रोहिला और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया था ।

1739 में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया । 1757 ईस्वी में रघुनाथ राव ने दिल्ली पर आक्रमण कर दुर्रानी को वापस अफ़गानिस्तान लौटने के लिए विवश कर दिया तत पश्चात उन्होंने अटक और पेशावर पर भी अपने थाने लगा दिए । अफगान का रहने वाला अहमद शाह अब्दाली वहाँ का नया - नया बादशाह बना था । अफगानिस्तान पर अधिकार जमाने के बाद उसने हिन्दुस्तान पर भी कई बार चढ़ाई की और दिल्ली के दरबार की निर्बलता और अमीरों के पारस्परिक वैमनस्य के कारण अहमद शाह अब्दाली को किसी प्रकार की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा ।

पंजाब के सूबेदार की पराजय के बाद भयभीत दिल्ली - सम्राट ने पंजाब को अफगान के हवाले कर दिया । जीते हुए देश पर अपना सूबेदार नियुक्त कर अब्दाली अपने देश को लौट गया । उसकी अनुपस्थिति में मराठों ने पंजाब पर धावा बोलकर , अब्दाली के सूबेदार को बाहर कर दिया और लाहौर पर अधिकार जमा लिया । इस समाचार को सुनकर अब्दाली क्रोधित हो गया और बड़ी सेना ले कर मराठों को पराजित करने के लिए अफगानिस्तान से रवाना हुआ ।

मराठों ने भी एक बड़ी सेना एकत्र की , जिसका अध्यक्ष सदाशिवराव और सहायक अध्यक्ष पेशवा का बेटा विश्वासराव था । दोनों वीर अनेक मराठा सेनापतियों तथा पैदल - सेना , घोड़े , हाथी के साथ पूना से रवाना हुए ।होल्कर , सिंधिया , गायकवाड़ और अन्य मराठा - सरदारों ने भी उनकी सहायता की । राजपूतों ने भी मदद भेजी और 30 हजार सिपाही लेकर भरतपुर ( राजस्थान ) का जाट - सरदार सूरजमल भी उनसे आ मिला । मराठा - दल में सरदारों की एक राय न होने के कारण , अब्दाली की सेना पर फ़ौरन आक्रमण न हो सका ।

पहले हमले में तो मराठों को विजय मिला पर विश्वासराव मारा गया । इसके बाद जो भयंकर युद्ध हुआ उसमें सदाशिवराव मारा गया । मराठों का साहस भंग हो गया । पानीपत की पराजय तथा पेशवा की मृत्यु से सारा महाराष्ट्र निराशा के अन्धकार में डूब गया और उत्तरी भारत से मराठों का प्रभुत्व उठ गया ।

यह लड़ाई 18 वीं सदी में सबसे बड़े लड़ाई में से एक माना जाता है और एक ही दिन में दो सेनाओं के बीच लड़ाई की रिपोर्ट में मौत की शायद सबसे बड़ी संख्या है ।

इस युद्ध ने एक नई शक्ति को जन्म दिया जिसके बाद से भारत में अग्रेजों की विजय के रास्ते खोल दिये थे ।

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