ब्रिटिश राज्य के आर्थिक प्रभाव ( Economic Impact Of Britishraj )

ब्रिटिश राज्य के आर्थिक प्रभाव ( Economic Impact Of Britishraj )

अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण भारतीय सम्पदा का निष्क्रमण होने लगा ।

अंग्रेजों के आने से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णतः ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आश्रित थी ।

भारत की सम्पदा भारत से बाहर विदेशों में जाने की प्रक्रिया को ही सम्पदा का निष्क्रमण अथवा सम्पदा का निष्पादन कहा जाता है ।

सम्पदा का निष्कासन 1757 ई . में शुरू हुआ ।

भारतीय सम्पदा का निष्कासन वंगाल से शुरू हुआ था ।

मद्रास बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के अध्यक्ष के अनुसार , “ हमारी व्यवस्था बहुत कुछ स्पंज की तरह है , जिसके जरिये गंगा तट की अच्छी चीजों को सोख लिया जाता है और टेम्स नदी के किनारे निचोड़ दिया जाता है ।”

किसानों का स्तर दिन - पर - दिन गिरने लगा था , क्योंकि अंग्रेजों की नीतियों का मुख्य उद्देश्य अपना आर्थिक विकास करना तो था ही , साथ ही भारतीय किसानों का शोषण भी था ।

1913 ई . तक 27.40 करोड़ की राशि भारत से विदेशों में जा चुकी थी ।

1786 ई . में कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत में आया ।

कार्नवालिस ने कम्पनी की माली हालत सुधारने के लिए 1790 ई . में एक योजना शुरू की जिसको “ स्थायी बन्दोबस्त " के नाम से जाना जाता है ।

स्थायी बन्दोबस्त की व्यवस्था को 1793 ई . में नया स्वरूप प्रदान किया गया ।

इसी व्यवस्था के तहत जमींदारों को भूमि पर मालिकाना हक मिला ।

मार्शमैन ने इस व्यवस्था को साहस , वहादुरी तथा बुद्धिमानी का कार्य बताया ।

जनसंख्या वृद्धि में स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था का अहम् योगदान रहा ।

जमींदार वर्ग के उदय का कारण यही बन्दोबस्त व्यवस्था थी ।

अंग्रेजी सरकार से जमींदार वर्ग के स्वार्थ सिद्ध होते थे । अतः यह वर्ग किसानों का विरोधी और अंग्रेजों का शुभचिंतक था । जमींदार वर्ग ने किसानों तथा अंग्रेजी सरकार के मध्य प्रतिरोधक का कार्य किया ।

स्थायी वन्दोवस्त व्यवस्था लागू करने के समय किसानों से लगान प्राप्त करने के सम्बन्ध में भूमि की सही नाप तौल नहीं की गई , जिससे कम्पनी को आर्थिक घाटा भी उठाना पड़ा ।

इस व्यवस्था के तहत अंग्रेज सरकार को लगान का 28 % ही मिलता था ।

स्थायी बन्दोवस्ती से समाज दो वर्गों में बंट गया एक निम्न वर्ग तथा एक उच्च वर्ग

1812 ई . में रैयतवाड़ी प्रथा की शुरूआत हुई । रैयत का अर्थ सामान्य प्रजा अथवा किसान से लगाया जाता है , जिसके पास दो बैल , एक हल तथा गाड़ी होती है , जिसे वह फालतू समय में किराए पर चलाता है ।

1854 ई . में पहला भूमि संगठन कानून बनाया गया ।

रैयतवाड़ी प्रथा का मुख्य बिन्दु यह था कि भूमि का पट्टेदार जब चाहे उचित समय नोटिस देकर भूमि के किसी भी भाग को छोड़ सकता था और इस प्रकार वह सरकारी मालगुजारी देने से बच जाता था ।

रैयतवाड़ी प्रथा ने भी किसानों को आर्थिक रूप से कमजोर किया ।

1801 ई . में महालवाड़ी प्रथा की शुरूआत हुई . “ महाल ” का तात्पर्य गाँव अथवा जागीर से लगाया जाता था ।

ब्रिटिश भूमि नीति के परिणामों से जमीन हस्तांतरित होने लगी थी ।

औपनिवेशक काल में भारतीय उद्योगों का जमकर शोषण हुआ ।

भारतीय किसान मूल खेती को छोड़कर अधिक पैसा देने वाली फसलों का उत्पादन अधिक करने लगे , जिसे कृषि का वाणिज्यीकरण कहा जाता था ।

वाणिज्यीकरण के कारण किसान व्यापारियों पर निर्भर हो गए ।

भारत में 1853 ई . में रेलवे पत्र के माध्यम से रेलवे के विकास की योजना बनाई गई ।

भारत में प्रथम रेलगाड़ी 1853 ई . में बम्बई तथा थाणे के मध्य चली ।

भू - राजस्व की अनिर्वायता ने भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि की ।

भूमिहीन कृषकों की संख्या 1911 ई . में 500 लाख थी ।

अंग्रेजों से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णरूपेण सुदृढ़ थी ।

यहाँ के कुटीर उद्योगों में निर्मित माल विदेशों तक में निर्यात होता था ।

अंग्रेजों के आधिपत्य का सबसे अधिक कुप्रभाव बंगाल के बुनकरों पर पड़ा । उनको कम कीमत पर अंग्रेजी कम्पनी में ही काम करने को राजी होना पड़ा ।

भारतीय सम्पदा का निष्कासन अंग्रेजों की शोषण नीति का ही परिणाम था ।

अंग्रेजों के द्वारा जो भारतीय धनराशि इंग्लैण्ड पहुँचाई जाती थी , उसके विभिन्न स्रोत थे , जैसे - लगान , विक्री तथा वसूली ।

धन को भारत से बाहर जाने की यह प्रक्रिया धन का अपवाह कहा जाने लगा ।

धन निष्कासन के सिद्धान्त का प्रतिपादन दादाभाई नौरोजी ने किया ।

प्रसिद्ध लेखक आर.सी. दत्ता का मानना है कि “ अंग्रेजों को विश्व के अनेक देशों पर कब्जा करने के लिए कई मिलियन पौंड खर्च करने पड़े , परन्तु भारत पर कब्जा करने पर उनका एक शिलिंग भी नहीं खर्च हुआ ” ।

भारत से धन निष्कासन की प्रक्रिया 1757 ई . में शुरू हुई ।

जॉर्ज विगनेर के अनुसार 1834-51 ई . के मध्य प्रतिवर्ष 4221611 पौंड इंग्लैण्ड भेजे जाते थे ।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दौर में पड़े अकालों की संख्या पिछले सौ वर्षों में पड़े अकालों से भी चार गुना अधिक थी ।

भारत में गरीवी बढ़ाने के लिए भू - राजस्व व्यवस्था ही जिम्मेदार रही ।

दादाभाई नौरोजी ने “ धन निष्कासन ” की प्रवृत्ति को “ खून चूसने ” की संज्ञा दी थी ।

अंग्रेजी कम्पनी ने सार्वजनिक ऋण व्यवस्था कायम की , जिसके आधार पर कम्पनी ने 1792 ई . में 70 लाख पौंड का ऋण व्याज कमाया जोकि 1939 ई . तक बढ़ते - बढ़ते 88.42 करोड़ तक पहुँच चुकी थी ।

कम्पनी ने सार्वजनिक ऋण व्यवस्था के साथ ही स्थायी वन्दोवस्त की भी व्यवस्था की जिसके तहत सबसे अधिक लगान देने वालों को ठेके पर जमीन देने की व्यवस्था की गई ।

स्थायी बन्दोवस्त की व्यवस्था 1790 ई . में कार्नवालिस द्वारा शुरू की गई ।

स्थायी वन्दोवस्त व्यवस्था में किसानों के लिए सख्त आदेश थे कि फसल हो या न हो प्रतिवर्ष निर्धारित राशि कम्पनी कोश में जमा करवानी होगी ।

स्थायी वन्दोवस्त व्यवस्था पहले बंगाल तथा विहार में , तत्पश्चात् उड़ीसा , मद्रास तथा यू.पी. के बनारस जिले में लागू की गई ।

मार्श मैन के कथनानुसार इस व्यवस्था से जनसंख्या में वृद्धि , कृषि का विस्तार तथा लोगों की आदतों में सुधार आया ।

स्थायी बन्दोवस्ती से जमींदार वर्ग का उदय हुआ तथा उनका जमीन पर पैतृक अधिकार हो गया ।

किसानों का कृषि के प्रति अधिक झुकाव पैदा हुआ . समाज में विभेद की लकीर खिंच गई ।

एक अनुमान के आधार पर भारत की भूमि का 19 % स्थाई बन्दोवस्त के अधीन , 30 % महालवाड़ी व्यवस्था के अधीन और 51 % रैयतवाड़ी व्यवस्था के अधीन था ।

भारत में “ रैयतवाड़ी ” की स्थापना 1812 ई . में हुई . यह व्यवस्था मद्रास में 1820 ई . में तथा मुम्बई में 1825 ई . में शुरू की गई ।

1887 ई . के कानूनों के तहत पंजावी किसानों को चिरस्थायी काश्तकारों के रूप में मान्यता दी गई . इसके आधार पर उन्हें अपनी भूमि बेचने तथा गिरवी रखने का अधिकार था ।

भू - राजस्व दरों की समय - समय पर ( 30 वर्षों में ) पुनर्समीक्षा होती थी ।

रैयतवाड़ी व्यवस्था से जमीन व्यक्तिगत सम्पत्ति बन गई तथा यह हस्तांतरित होने वाली वस्तु हो गई , जिसके फलस्वरूप सामाजिक गतिशीलता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई ।

महालवाड़ी प्रथा लागू करते समय सरकार ने कृषकों से सीधा सम्पर्क नहीं किया बल्कि एक नए वर्ग को मुखिया बनाया ।

अवध क्षेत्र में महालवाड़ी प्रथा 1801 ई . में लागू की गई ।

हस्तांतरणीय व्यवस्था से जमीन छोटे - छोटे भूखण्डों में परिवर्तित हो गई ।

भारतीय कृषि उत्पादनों एवं अन्य खनिजों से तैयार माल को दुबारा भारत में ही बिक्री के लिए लाया जाता था , जिससे यहाँ के उद्योग - धन्धे चौपट हो गए ।

1813 ई . के बाद कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया ।

आवागमन के साधनों के विकास , अधिक भू - राजस्व व्यवस्था तथा विदेशी माल के आयात के कारण किसानों का कृषि के प्रति रुझान अधिक बढ़ा ।

1869 ई . तक भारत में 4000 मील लम्वी रेल लाइन बनाई जा चुकी थी ।

1869 ई . में इस रेल निर्माण नीति में परिवर्तन किए गए जिनका उद्देश्य खर्च में कमी लाना था ।

इस अवधि में रेलों का निर्माण राजकीय उद्योग के रूप में हुआ ।

1880 ई . में रेलों के निर्माण की व्यवस्था पुनः कम्पनी के हाथों में सौंपी गई ।

1905 ई . तक करीब 28,000 मील लम्बी रेल लाइन का निर्माण किया जा चुका था ।

भू - राजस्व की माँग तथा साहूकारी ऋण का बोझ भूमिहीन श्रमिकों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण रहा ।

1875 ई . में जहाँ भूमिहीन श्रमिकों की संख्या 80 लाख थी , वह बढ़कर 1911 ई . में 500 लाख हो गई ।

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