राजस्थान की लोककला Important For All Exams PDF

Rajasthan Ki Lok Kala

पाषाणयुगीन मानव ने शिकार के लिए पत्थर के हथियार बनाये , उसके बाद उसने मिट्टी के बर्तन , खिलौने , मनके , ईटें , ताँबे की कुल्हाडियाँ आदि आपनी जरूरत एवं रोजमर्रा के उपकरणों का निर्माण किया । बिना किसी मशीन या नक्शे के शुरू किये गये ये कार्य केवल उसके दक्ष हाथों का ही कमाल था । चांदी के आहत सिक्के जो बिना किसी नाप - जोख के बने , के प्रमाण हमें मिलते है । बसन्तगढ़ की कांस्य प्रतिमा राजस्थान में धातु के काम की प्राचीनतम प्रमाण समझी जाती है । विराट नगर के बौद्ध चैत्य मे मौर्यकाल के छब्बीस लकड़ी के स्तम्भ लगे हुए थे , जो राजस्थान मे लकड़ी का प्राचीनतम काम था । ये सब राजस्थान मे हस्तकलाओं की प्राचीनता साबित करते है ।

वर्तमान में राजस्थान मे कपड़े की बुनाई , पत्थर की मूर्तियाँ , जवाहरात की कटाई , मीनाकारी , चाँदी के आभूषण , बंधेज , हाथी दाँत व चन्दन की कुटाई , लकड़ी की कारीगरी , गलीचा बुनाई , पीतल व धातु की कारीगरी , मिट्टी के बर्तन , लाख का काम , चमड़ें की जूतियाँ , चित्रकला आदि सभी क्षेत्रों मे हस्तकलाओं का कार्य होता है ।

पट चित्र या फड

भीलवाड़ा जिले का शाहपुरा कस्बा राजस्थान की परंपरागत लोक चित्रकला ' फड़ ' के कारण राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात है ।

2006 मे फड़ चित्रकार श्रीलाल जोशी पद्मश्री से नवाजे जा चुके है । जोशी ने शाहपुरा की फड़ चित्रकला को वर्तमान मे नई पहचान दी है ।

मोटे सूती कपड़ें ( रेजा ) पर गेहूँ या चावल के मांड में गोंद मिलाकर कलफ पर पाँच या सात रंगों से बनी फड़ ग्रामीणों के सरलतम विवरणात्मक , क्रमबद्ध कथन का सुंदर प्रतीक है ।

मानवाकृतियाँ , पुश - पक्षी , प्रकृति चित्रण आदि का संयोजन कर उनमें रंग भरा जाता है । सर्वप्रथम सिन्दूरी रंग शरीर मे , फिर हरा व लाल रंग कपड़ों में , भूरा रंग वास्तु निर्माण में एवं अंतिम रेखाएँ काले रंग से की जाती है ।

चित्र संयोजन में प्रमुख आकृति को सबसे बड़ा बनाकर प्रधानता दी जाती है । अन्य आकृतियाँ उसके अनुपात में छोटी बनाई जाती है । छोटी आकृतियाँ गतिशील एवं जीवंत दिखाई देती है ।

सभी चेहरों पर तीखी , लम्बी नाक , बड़ी बीजनुमा आँखें , छोटा माथा , दोहरी ठुड्डी , मुड़ी हुई पतली मूंछे होती है ।

रंगों का प्रतीकात्मक प्रयोग भावाभिव्यक्ति में सहायक है देवियाँ नीली , देव लाल , राक्षस काले , साधु सफेद या पीले रंग से बनाये जाते है । सिन्दूरी व लाल रंग शौर्य व वीरता के द्योतक हैं

फड़ नागौर , बीकानेर , जैसलमेर आदि क्षेत्र के राजपूत , गुर्जर , जाट , कुंभकार , बलाई आदि जातियो के चारण व भोपों के लिए जीविकोपार्जन का साधन है । इस कला को जीवित रखने और लोकप्रिय बनाने में चित्रकरों के साथ - साथ भोपों की भी भूमिका है ।

भोपे फड़ को लकड़ी पर लपेट कर गांव - गांव जाकर पारंपरिक वस्त्रों में रावणहत्था या जंतर वाद्य यंत्र की धुन के साथ कदम थिरकाते हुए वाचन करते है ।

इस परंपरा मे लोक नाट्य , गायन , वादन , मौखिक साहित्य , चित्रकला व लोकधर्म का अद्भुत संगम दिखाई देता है ।

राजस्थान में चित्रों के माध्यम से कथा कहने की विधा को फड़ कहा जाता है । फड़ चित्रण कपड़े या कैनवास पर किया जाता है ।

फड़ बाचने वाले भोपा कहलाते है । फड़ को भोपा युगल मिलकर गाते है । पाबूजी व देवनारायण की फड़ प्रसिद्ध है ।

भीलवाड़ा जिले में स्थिात शाहपुरा फड़ या फड़ पेंटिग का प्रधान कार्य स्थल है । इसमें मुख्यतः लाल व हरा रंग काम होता है

शाहपुरा का जोशी परिवार फड़ पेटिंग में पारंगत है नाथद्वारा में कृष्ण प्रतिमा के पीछे दीवारों पर लगाये जाने वाले कपड़े पर श्री कृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया जाता है । प्रतिमा के पीछे लगाने के कारण ये पिछवाइयां कहलाती है ।

पाने

राजस्थान मे विभिन्न पर्व , त्योहारों एवं मांगलिक अवसरों पर कागज पर बने देवी - देवताओं के चित्रों को प्रतिष्ठापित किया जाता है , जिन्हें ' पाने ' कहा जाता है । गणेशजी , लक्ष्मीजी , रामदेवजी , गोगाजी , श्रवण कुमार , तेजाजी , राम , कृष्ण , शिव , शिव - पार्वती , धर्मराज इत्यादि के पाने शुभ अवसरों पर प्रयुक्त किए जाते है । ये पाने सस्ते होते है , जिन्हें ग्रामीण खरीदकर समयनुसार प्रयुक्त करते है । पानों को सामान्य कागज पर पोस्टर रंगों का प्रयोग करते हुए तैयार किया जाता है । घर में सुख - समृद्धि व विवाह के अवसर पर गणेशजी के पाने का प्रयोग करते है । दीपावली पर लक्ष्मीजी का पाना प्रयोग में लाया जाता है । पानों में गुलाबी , लाल , काले रंग का मुख्यतः प्रयोग किया जाता है ।

काष्ठ कला ( कावड़ व बेवाण )

राजस्थान में खाती या सुथार जाति के लोग लकड़ी का कार्य करने मे सिद्धहस्त होते है । ये लकड़ी का घरेलू सामान , कठपुतलियाँ , पूजन सामग्री रखने , मांगलिक अवसरो पर काम में आने वाली वस्तुएँ व खिलौने बनाते है । चित्तौड़ जिले का ' बस्सी ' गांव लकड़ी की कलात्मक वस्तुओं के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है । बस्सी मोर चौपड़ा ( शृंगार दान ) , बाजोट , गणगौर , हिंडौल एवं लोक नाट्यों में प्रयुक्त विभिन्न वस्तुएँ- खांडा , तलवार , मुखौटे , विमान एवं कावड़ ( मंदिरनुमा आकार ) निर्माण के लिए प्रसिद्ध है । इनमें कावड़ सबसे कलात्मक होती है । कावड़ एक मंदिरनुमा काष्ठ कलाकृति होती है । जिसमें कई द्वार बने होते है । सभी द्वारों पर चित्र अंकित रहते है । कथावाचन के साथ - साथ कावड़ के द्वार खुलते जाते है । सभी द्वार खुल जाने पर राम - लक्ष्मण व सीता की मूर्तियाँ दर्शित होती है । कावड़ पूरी लाल रंग जाती है व उसके ऊपर काले रंग से पौराणिक कथाओं को चित्रित किया जाता है । कावड़ में मुख्यतः रामायण , महाभारत , कृष्ण - लीला से संबंधित घटनाओं का चित्रण होता है ।

बस्सी के काष्ठ कलाकार ' बेवाण ' बनाने मे भी निपुण है । ' बेवाण ' भी एक काष्ठ मंदिर होता है , जो सामने से खुला और तीन ओर से बंद होता है । अनन्त चतुर्दशी व झूलना एकादशी पर राम , कृष्ण व विष्णु के छोटे विग्रह को बेवाण में विराजमान करके उनका जुलूस निकाला जाता है । बेवाण निर्माण एवं इन पर लकड़ी की खुदाई कलात्मक होती है ।

चित्तौड़गढ़ के बस्सी गांव में लकड़ी की कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती है ।

डूंगरपुर का जेठाना गांव लकड़ी पर कलात्मक शिल्प के लिए प्रसिद्ध है ।

जोधपुर के पाल शिल्प ग्राम में राजसिकों की सहायता से वुड सीजनि - प्लाण्ट लगाया गया है ।

माण्डणा

' माण्डणा ' से तात्पर्य अलंकृत करने से है । माण्डणे घर की देहरी , चौखट , आंगन , चबूतरा , चौक , पूजन स्थल , दीवारों आदि को अंलकृत करने के लिए बनाये जाते है । गेहूँ , चूने या खड़िया से गोबर लिपी सतह पर विभिन्न असवरों पर अलग - अलग माण्डणे बनाये जाते है । विवाह के अवसर पर गणेशजी , लक्ष्मी जी के पैर , स्वस्तिक आदि शुभ प्रतीकों के साथ - साथ सामान्य दिनों में गलीचा , मोर - मोरनी , गमले , गलियाँ , बन्दनवार , बच्चे के जन्म पर गलीचा , फूल , स्वस्तिक , रक्षा बंधन पर श्रवण कुमार , गणगौर पर मिठाई , घेवर , लहरिया , तीज पर भी घेवर , लहरिया , चौक फूल , होली और दीपावली पर चंग , ढफ , ढोलक , स्वस्तिक , सूर्य , चन्द्रमा , दीपक , थाली , पान , सुपारी , मिठाइयाँ आदि माण्डणे बनाये जाते है ।

माण्डणे अत्यन्त सरल , अमूर्त व ज्यामितीय शैली का सुंदर सम्मिश्रण है । वृत्त वर्ग आदि ज्यामितीय आकारों में बिंदु , आड़ी , तिरछी रेखाओं से आलंकारिक रूप प्रदान करते है । इनका उद्देश्य अलंकृत करना तो हैं ही इसके साथ ही ये स्त्रियों के हृदय मे छिपी भावनाओ , भय व आकांक्षाओं को भी दर्शाते है ।

सांझी

सांझी श्राद्ध पक्ष में बनाई जाती है । कुंवारी लड़कियाँ सफेदी से पुती दिवारों पर गोबर से आकार उकेरती है । तथा साँझी को माता पार्वती मानकर अच्छे घर , वर के लिए कामना करती है । प्रथम दिन से दस दिन तक एक या दो प्रतीक ही प्रतिदिन बनाए जाते है , किंतु अंतिम पाँच दिनो मे बड़े आकारों में साँझी बनाई जाती है , जिसे संझ्या कोट कहते है । राजस्थान में प्रत्येक जगह साँझी के क्रम में अंतर रहता है । कई जगह पहले दिन सूर्य , चन्द्रमा , तारे , दूसरे दिन पाँच फूल , तीसरे दिन पंखी , चौथे दिन हाथी सवार , पाँचवें दिन चौपड़ , छठे दिन स्वस्तिक , सातवें दिन घेवर , आठवे दिन ढोलक या नगाड़े , नवें दिन बन्दनवार व दसवें दिन खजूर का पेड़ बनाया जाता है । अंतिम पाँच दिन की संझ्याकोट में बीचो - बीच सांझी माता बड़े आकार की व चारों ओर मानव , पशु - पक्षी आकृतियाँ बनाई जाती है । कहीं - कहीं पाँच पछेटा , छबड़ी , घड़ा , कलश , मोर - मोरनी , सीढ़ी , हनुमान , थाल , दोना , फेनी , घेवर , जलेबी भी बनाई जाती है । ये केवल अलंकरण है । इनका कोई खास महत्व नहीं है । इनका आकार जड़ व गतिहीन होता है , किंतु इनमें भित्ति चित्र की विशेषताएँ निहित होती है ।

गोदना

किसी तीखे औजार से शरीर की ऊपरी चमड़ी खोदकर उसमें काला रंग भरने से चमड़ी में पक्का निशान बन जाता है , जिसे गोदना कहा जाता है । अहीर , गुवारी , गूजर , रेबारी , चांगल , सांसी , भाभी , कसाई , बनजारा , खटीक , कालबेलिया आदि जातियों की महिलाएँ गोदना गुदवाने में अधिक रूचि रखती है । पूर्व मे बबूल का काँटा या सुई का प्रयोग गोदने के लिए किया जाता था । वर्तमान मे बिजली के औजार द्वारा गोदना खुदवाया जाता है । इनमें काले रंग के लिए कोयला , राख , जली हुई लकड़ी या कालिख को आक के पत्तों के रस या तिल के तेल के साथ मिलाकर चमड़ी मे भरते है ।

गोदना सौंदर्य के साथ अंधविश्वासों से भी जुड़ा हुआ है । माना जाता है कि अनगुदा शरीर असुरक्षित होता है । ग्रामीण स्त्रियाँ चेहरे पर सौंदर्य के लिए माथें , भवों , नाक के आस - पास , ठोड़ी , गाल , गार्दन व आँखों के दोनो ओर रेखाओं व बिंदुओं के द्वारा विभिन्न अलंकरण बनवाती है । छाती , गर्दन , पीठ , पेट , कूल्हें , जांघ , टाँग , टखने , बाहें , कलाई , हथेली के पीछे अंगुलियों पर भी विभिन्न अलंकरण बनवायें जाते है । गोदने के अलंकरण जाति विशेष व रूचि पर आधारित होते है । कुछ स्त्रियाँ गोदने मे केवल चित्र गुदवाती है तो कुछ केवल नाम । ( ग्रामीण क्षेत्रों मे गोदना गुदवाकर देह सज्जा करना एक परंपरा बन गई है । )

भित्ति - चित्रण

चेजारे - भवन निर्माण में संलग्न शिल्पियों को कहा जाता है जो प्रायः भित्ति चित्रण का कार्य भी करते है । प्रायः कुम्हार जाति के ।

भित्ति चित्रण का कार्य सर्वाधिक शेखावटी क्षेत्र में , जिसमें लोक जीवन की झांकी सर्वाधिक देखने को मिलती है ।

ऑपन आर्ट गैलरी -शैखावटी को

रियासतों में भित्ति चित्रण की दृष्टि से कोटा - बुन्दी क्षेत्र सर्वाधिक विकसित रहा ।

भित्ति पर सौन्दर्य और सृजन की दृष्टि से किया हुआ नानारूपी अतंकरण भित्ति चित्रण कहलाता है ।

रियासतों में भित्ति चित्रिण के मुख्य विषय तत्कालीन राजसी वैभवपूर्ण जीवन , महफिल , उद्यान , विहार , रनिवास , प्रेमलीला , धार्मिक चित्र , शिकार व युद्ध के दृश्य , लोक देवताओं एवं प्रेमाख्यानों एवं नायिकाओं की विभिन्न मुद्राओं का चित्रण तथा राधाकृष्ण की लीलाएं रही है ।

शेखावटी के भित्ति चित्रों में लोक जीवन की झांकी सर्वाधिक देखने को मिलती है ।

शेखावटी के नवलगढ़ , चिड़ावा , रामगढ़ फतेहपुर , सरदार शहर , मंडावा आदि भित्ति चित्रण के प्रमुख केन्द्र ।

देवकी नदन शर्मा - अलवर । मास्टर ऑफ नेचर एण्ड लिविंग ऑब्जेक्ट्स के नाम से प्रसिद्ध । पशुपक्षी चित्रण एवं भित्ति चित्रण में विशेष ख्याति । परम्परावादी चित्रकार थे ।

जोगीदास की छतरी ( उदयपुरवाटी ) - भित्ति चित्रांकन परम्परा का प्राचीनतम उदाहरण , चित्रकार देवा ।

भित्ति चित्रण की प्रमुख विधियाँ

फ्रेस्कों बुनों - ताजी पलस्तर की हुई नम भित्ति पर किया गया चित्रण । राजस्थान में इस पद्धति को अरायशा या आलागीला कहते है । शेखावटी में अरायशा को पणा कहते है ।

फ्रास्कों सेको चित्रण - इस विधिा में पलस्तर की गई मिट्टी को पूर्ण रूप से सूखने के बाद चित्रण कार्य किया जाता है ।

शेखावटी के भित्ति चित्रण में कत्थई , नीले व गुलाबी रंग की प्रधानता है । चित्रकार बालुराम , चेजारा , जयदेव , तनसुख । बलखाती बालो की लट का एक ओर अंकन स्त्री चित्रण में शेखावटी की मुख्य विशेषता है ।

भित्ति तैयार करने हेतु राहोली का चूना अराइशी चित्रण के लिए सर्वोत्तम माना जाता है । अकबर और जहांगीर की भित्ति चित्र कला में रूचि , उन्हीं के समय आलागीला पद्धति इटली से भारत आई ।

मथैरना कला - इस कला में धार्मिक स्थानों एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित विभिन्न देवी - देवताओं के आकर्षक भित्ति चित्र , ईसर , गणगौर आदि का निर्माण कर इन्हें आकर्षक रंगों से सजाया जाता है । बीकानेर क्षेत्र में मथैरना कला अधिक प्रचलित है ।

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❊Information
File Name - राजस्थान की लोककला Important For All Exams
Language - Hindi
Size - 252 KB
Number of Pages -5
Writer - #NA
Published By - Knowledge Hub
ISBN - #NA
Copyright Date: 21-07-2021
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Source - Nirman IAS
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