व्यावसायिक नियामक संरचना से सम्बद्ध महत्वपूर्ण शब्दावली

Important terminology related to business regulatory structure
 In Hindi

अखण्डनीय एजेन्सी ( Irrevocable Agency ) ऐसी एजेन्सी जिसका खण्डन या समापन नियोक्ता ( Principal ) द्वारा अपनी इच्छा से नहीं किया जा सकता , अखण्डनीय एजेन्सी कहलाती है . अधिकांशतः एक एजेन्सी का नियोक्ता द्वारा स्वेच्छा से कभी - भी खण्डन किया जा सकता है , किन्तु निम्न लिखित परिस्थितियों में एजेन्सी अखण्डनीय बन जाती है

( i ) हित - युक्त एजेन्सी ( Agency Coupled with Interest of Agent ) की दशा में ;

( ii ) एजेन्ट द्वारा व्यक्तिगत दायित्व स्वीकार करने की दशा में और ;

( iii ) एजेन्ट द्वारा प्रदत्त अधिकारों का आंशिक उपयोग करने की दशा में ..


उल्लेखनीय है कि अखण्डनीय एजेन्सी का समापन नियोक्ता और एजेन्ट दोनों की सहमति से ही हो सकता है .

निस्तीर्ण क्षति ( Liquidated Damage ) वह क्षति या हानि की पूर्वानुमानित राशि जिसका उल्लेख अनुबन्ध उत्पत्ति या निर्माण के समय पर कर लिया जाता है , निस्तीर्ण क्षति कहलाती है . अन्य शब्दों में , यह एक प्रकार से उचित एवं सम्भावित हानि की राशि का अनुमानित स्वरूप है , जो अनुबन्ध के खण्डित या भंग होने पर उत्पन्न हो सकती है . अर्थात् यह अधिकतम हानि की पूर्वानुमानित राशि है , जो अनुबन्ध भंग होने पर सृजित हो सकती है .

भारत में प्रचलित व्यावसायिक नियामकों ( Business Regulatories ) के अनुसार अनुबन्ध के भंग होने की दशा में पीड़ित पक्ष को केवल वास्तविक क्षति की पूर्ति कराने का ही अधिकार है न कि निस्तीर्ण क्षति प्राप्त करने का अधिकार .

अनुबन्ध का प्रत्याशित या रचनात्मक उल्लंघन ( Anticipatory or Constructive Breach of Contract ) जब अनुबन्ध या संविदा का एक पक्षकार अनुबन्ध के निष्पादन के समय या तिथि या दिन से पहले ही अपने दायित्व निर्वहन या वचन की अनुपालन करने से इन्कार कर देता है , या असमर्थता अभिव्यक्त कर देता है , तो ऐसे अनुबन्ध उल्लंघन को प्रत्याशित या रचनात्मक उल्लंघन कहा जाता है .

अनुबन्ध के प्रत्याशित उल्लंघन की दशा में पीड़ित पक्षकार ( Victim Party ) को नियमानुसार दो अधिकार / उपाय प्राप्त होते हैं
( i ) वह अनुबन्ध समाप्त मानकर अपने दायित्वों से भी मुक्त हो सकता है अथवा
( ii ) अनुबन्ध भंग के लिए दोषी पक्ष पर वाद प्रस्तुत करके क्षतिपूर्ति की माँग भी कर सकता है .

अनुबन्ध का वास्तविक उल्लंघन ( Actual Breach of Contract ) जब अनुबन्ध का कोई पक्षकार अनुबन्ध निष्पादन तिथि / दिन / समय से पूर्व अपने वचनों को पूरा करने की असमर्थता प्रकट नहीं करता है , बल्कि उसी निष्पादन तिथि या समयावधि या समय को ही दायित्व निर्वहन से मना करता है , तो ऐसे उल्लंघन को अनुबन्ध का वास्तविक उल्लंघन या भंग कहा जाता है . उदाहरणार्थ- चन्द्रिका ने चारू को एक लेपटॉप 2 मई को बेचने का अनुबन्ध किया और वह 2 मई को ही चारू से सुपुर्दगी के लिए इन्कार करते हुए खेद प्रकट कर रही है , यहाँ पर चन्द्रिका द्वारा किए गए उल्लंघन को अनुबन्ध का वास्तविक उल्लंघन कहा जाएगा . यदि चन्द्रिका द्वारा 2 मई से पूर्व ही लेपटॉप की सुपुर्दगी के लिए मनाकर दिया जाता है , तो ऐसे उल्लंघन को अनुबन्ध का प्रत्याशित खण्डन कहा जाता है .

परिहार द्वारा अनुबन्ध का समापन ( Discharge of Contract by Remission ) अनुबन्ध को पारस्परिक सहमति के आधार पर समाप्त करने की वह विधि जिसमें अनुबन्ध का एक पक्षकार अपने मूलभूत अधिकारों में से कुछ अधिकारों का त्याग या परिहार करते हुए कम प्रतिफल या निष्पादन को स्वीकार कर लेता है तो ऐसी स्वीकृति के साथ ही पुराना अनुबन्ध स्वतः ही समाप्त हो जाता है . उदाहरणार्थ- सविता द्वारा कविता को प्रदत्त कुल ₹ 15 लाख के ऋण के बदले में ₹ 13 लाख का चुकता या अन्तिम भुगतान स्वीकार कर लेना .उल्लेखनीय है कि इंगलैण्ड में क्रियान्वित नियामक संरचना ( Regulatory Frame work ) के अनुसार सविता द्वारा दी गई ऐसी स्वीकृति को अभिसंविदा या आश्वासन एवं सन्तुष्टि ( Accord and Satisfaction ) के सिद्धान्त के नाम से पुकारा जाता है .

संविदा का समनुदेशन ( Assignment of Contract ) जब अनुबन्ध या संविदा किसी एक पक्षकार द्वारा अनुबन्ध से प्राप्त स्वत्वों / हितों / अनुलाभों / अधिकारों का स्वेच्छा से किसी अन्य पक्षकार को हस्तान्तरण कर दिया जाता है , तो ऐसे हस्तान्तरण को संविदा का समुनदेशन करना कहा जाता है .

ऐसा समनुदेशन केवल अधिकारों का ही हो सकता है , दायित्वों का नहीं , केवल अवैयक्तिक स्वभाव वाले अनुबन्धों का ही समनुदेशन किया जा सकता है .

संविदा का उत्तराधिकार ( Succession of Contract ) जब संविदान्तर्गत प्राप्त हितों या अधिकारों या अनुलाभों का अन्तरण कानून की प्रभाव लता के कारण होता है , तो ऐसी प्रक्रिया को संविदा की उत्तराधिकार प्रक्रिया कहा जाता है .

कानून द्वारा अधिशासित होने वाली इस प्रक्रिया में संविदा का समनुदेशन भी सम्मिलित है , किन्तु संविदा की उत्तराधिकार प्रक्रियान्तर्गत अधिकारों के साथ - साथ कर्तव्यों का भी हस्तान्तरण होता है और इसमें केवल प्राकृतिक व्यक्तियों द्वारा किए गए अनुबन्धों को ही सम्मिलित किया जाता है . निम्नांकित दशाओं में राजनियमों के क्रियान्वयन एवं प्रभावी होने के कारण संविदा का उत्तराधिकार प्राप्त होता है

( i ) किसी पक्षकार के दिवालिया होने पर राजकीय प्रापक या निस्तारक को प्राप्त उत्तराधिकार .

( ii ) किसी पक्षकार की मृत्यु होने पर उसके वैधानिक प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी को प्राप्त अधिकार .

भुगतानों का विनियोजन ( Appropriation of Payments ) से भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 के अनुसार भुगतानों के विनियोजन अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसके अन्तर्गत एक ऋणदाता द्वारा ऋणी द्वारा प्रेषित अपर्याप्त भुगतान राशि का अनेक स्वभाव वाले ऋणों के विरुद्ध समायोजन किया जाता है . ऋणदाता ऐसा समायोजन / विनियोजन निम्नानुसार किया जा सकता है -

( i ) ऋणी द्वारा प्रेषित निर्देशानुसार ;

( ii ) स्वेच्छानुसार ( निर्देशों के अभाव में ) :

( iii ) समय क्रमानुसार

( iv ) सभी ऋणों के भुगतान की माँग करने पर आनुपातिकविनियोजन .

प्रयतित निष्पादन ( Attempted Performance ) प्रायः अनुबन्धों का निष्पादन पक्षकारों द्वारा यथासमय वचनों / दायित्वों की पालना करते हुए कर दिया जाता है , किन्तु कभी कभी एक पक्षकार द्वारा वास्तविक निष्पादन के स्थान पर निष्पादन का प्रस्ताव भेजा जाता है , ऐसी स्थिति में यदि दूसरा पक्षकार द्वारा ऐसे प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया जाता है , तो ऐसे - ऐसे ' अस्वीकृत निष्पादन प्रस्ताव को प्रयतित निष्पादन कहा जाता है , किन्तु ऐसे निष्पादन अनुबन्ध से उत्पन्न मौद्रिक मुक्त नहीं हो सकता , बल्कि वह ब्याज व अन्य खर्चों की राशि के दायित्व से मुक्त हो सकता है . प्रस्तावक दायित्वों से में
उदाहरणार्थ - ईशिता ने वेदिका को 500 कुर्तियाँ ₹ 2,50,000 बेचने का अनुबन्ध किया और 4 अगस्त को सुपुर्दगी तिथि सुनिश्चित की गई . ईशिता ने 4 अगस्त को पुर्दगी हेतु वेदिका को प्रस्ताव प्रेषित किया , किन्तु वेदिका ने सुपुर्दगी लेने से इन्कार कर दिया अर्थात् निष्पादन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया , फलस्वरूप ईशिता अनुबन्ध से उत्पन्न दायित्वों से मुक्त हो गई और ईशिता की ओर से यह अनुबन्ध का प्रयतित निष्पादन माना जाएगा . इसके विपरीत , यदि वेदिका द्वारा भुगतान हेतु प्रस्तुत निष्पादन के प्रस्ताव को ईशिता द्वारा अस्वीकार किया जाता है , तो यह अनुबन्ध प्रयतित निष्पादन वेदिका की ओर से माना जाएगा और वह केवल ₹ 2,50,000 के भुगतान के लिए ही उत्तरदायी है न कि इस पर ब्याज या अन्य राशि के भुगतान हेतु

.

सांयोगिक अनुबन्ध ( Contingent Contract ) ऐसा अनुबन्ध जिसमें वचनदाता द्वारा किसी भावी अनिश्चित घटना के घटित होने या घटित न होने पर अनुबन्ध से उत्पन्न वचनों को पूरा करने हेतु प्रतिबद्ध होने का आश्वासन दिया जाता है . यह घटना अनुबन्ध के समपार्श्विक और विशिष्ट घटना होती है . ऐसे अनुबन्धों का निष्पादन संयोग ( Contingency ) पर निर्भर होने के कारण ही इन्हें सांयोगिक अनुबन्ध कहा जाता है . इस प्रकार के अनुबन्धों को सापेक्ष या समाश्रित अनुबन्ध भी कहा जाता है . सांयोगिक अनुबन्धों के प्रमुख उदाहरण निम्नवत् हैं

( i ) क्षतिपूर्ति या हानि रक्षा अनुबन्ध ( Contract of Indemnity )

( ii ) प्रत्याभूति या गारन्टी अनुबन्ध ( Contract of Guarantee )

( iii ) साधारण बीमा के अनुबन्ध ( Contracts of General Insurance )

( iv ) बाजी के ठहराव ( Agreements of Wagering ) .

विवशता या नैराश्यता का सिद्धान्त ( Doctrin of Frustration ) अनुबन्ध की समाप्ति से सम्बन्धित यह सिद्धान्त पश्चातवर्ती असम्भवता उत्पन्न होने की दशा में लागू होता है . इस सिद्धान्त के अनुसार यदि अनुबन्ध करने के बाद कुछ आकस्मिक परिस्थितियों के कारण उस अनुबन्ध का निष्पादन सम्बन्धित पक्षकारों के नियन्त्रण से बाहर हो जाता है , तो दोनों ही पक्षकार अपने - अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं , इस सिद्धान्त के लागू होने के कारण निष्पादन की असम्भवता बन जाती है और अनुबन्ध व्यर्थ हो जाता है .

प्राय : निम्नांकित दशाओं निष्पादन की नैराश्यता / विवशता / असम्भवता उत्पन्न हो जाती है

( i ) किसी पक्षकार की मृत्यु होने पर ;

( ii ) पक्षकारों को शत्रु राष्ट्र का नागरिक घोषित करने पर ;

( iii ) अनुबन्ध की विषयवस्तु ( Subject Matter ) के नष्ट होने पर ;

( iv ) विशिष्ट घटना के घटित न होने की दशा में ;

( v ) प्राकृतिक आपदाओं या परिस्थितियो के कारण :

( vi ) सरकारी नियमों में अचानक परिवर्तन होने के कारण आदि .

लोकलक्षी अधिकार ( Rights in Rem ) अनुबन्ध के निष्पादन से प्राप्त ऐसे अधिकार जो किसी व्यक्ति को किसी उत्पाद या वस्तु के सम्बन्ध में सम्पूर्ण विश्व के विरुद्ध प्राप्त होते हैं , ' लोकलक्षी अधिकार ' कहलाते हैं .

उदाहरणार्थ- पारस द्वारा ₹ 10 लाख का विधिसम्मत भुगतान करते हुए चेतन से एक कार खरीदी गई . यहाँ पर पारस को इस कार पर लोकलक्षी अधिकार प्राप्त हैं .

व्यक्तिलक्षी अधिकार ( Rights in Personam ) ऐसे अधिकार , जो किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध प्राप्त होते हैं , व्यक्तिलक्षी अधिकार कहलाते हैं , उपर्युक्त उदाहरण में पारस और चेतन को एक - दूसरे के विरुद्ध व्यक्तिलक्षी अधिकार प्राप्त हैं .

उपनिधान अनुबन्ध ( Contracts of Bailment ) वह अनुबन्ध जिसमें एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को किसी कार्य या अवधि या उद्देश्य हेतु कोई वस्तु इस शर्त पर सौंपी जाती है कि वह कार्य / अवधि या उद्देश्य पूरा होने पर वृद्धि सहित वस्तु वापस लौटा देगा अथवा उसके निर्देशानुसार उस वस्तु या माल ( Goods ) की व्यवस्था कर देगा , उपनिधान या निक्षेप अनुबन्ध कहलाता है . ऐसे अनुबन्धों में माल देने वाले को निक्षेपी या निक्षेपकर्ता ( Bailor ) और माल प्रापक को निक्षेपग्रहीता ( Bailee ) कहा जाता है . किन्तु निम्नांकित दशाओं में निक्षेप अनुबन्ध सृजित नहीं होता है

( i ) एजेन्ट द्वारा नियोक्ता की ओर से धन एकत्रित करना ;

( ii ) बैंक में जमा धन ( बचत खाते , चालू खाते या स्थायी जमा खाते में )

( iii ) सेफ्टी वॉल्ट या बैंक लॉकर में रखा कीमती माल या रोकड़ी धन .

माल की कल्पित या रचनात्मक सुपुर्दगी ( Imaginative or Constructive Delivery of Goods ) ऐसी सुपुर्दगी जिसमें माल की वास्तविक या भौतिक या सांकेतिक सुपुर्दगी नहीं की जाती है , बल्कि निक्षेपी के कथन के प्रभाव से ही निक्षेपग्रहीता द्वारा माल की सुपुर्दगी मान ली जाती है , रचनात्मक सुपुर्दगी कहलाती है . ऐसी सुपुर्दगी के कारण माल तो यथावत् उसी एजेन्ट या मध्यस्थ के पास पड़ा रहता है , किन्तु अधिकार और स्वामित्व परिवर्तित हो जाता है .

उदाहरणार्थ- दिनेश ने नितेश को 200 पेटी अंगूर बेचने का अनुबन्ध किया . ये अंगूर श्रीनाथ कोल्ड स्टोरेज में रखे हुए हैं . नितेश ने पूरा भुगतान करते हुए माल की सुपुर्दगी स्वीकार कर ली तथा दिनेश ने स्टोरेज मालिक को स्वामित्व अन्तरण प्रपत्र प्रेषित कर दिया . अब यह माल भविष्य में नितेश की ओर से स्टोरेज में रखा हुआ समझा जाएगा .

माल ( Goods ) भारतीय माल ( वस्तु ) विक्रय अधिनियम , 1930 की धारा 2 के अनुसार , माल में वाद योग्य दोवों और प्रचलित मुद्रा को छोड़कर सभी प्रकार की चल परिसम्पत्तियों को सम्मिलित किया जाता है . अर्थात् निम्नांकित को ' माल ' नहीं माना जा सकता

( i ) वाद योग्य दावे ( Actionable Claims ) ;

( ii ) प्रचलित मुद्रा ( Currency in Circulation ) ; और

( iii ) अचल परिसम्पत्तियाँ ( Fixed Assets ) .

उल्लेखनीय है कि विभिन्न न्यायाधीशों द्वारा प्रदत्त निर्णयों के अनुसार निम्नांकित माल ( Goods ) की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता रहा है

( i ) भूमि से पृथक् करके विक्रय योग्य सभी वस्तुएँ जैसे- खनिज पदार्थ , घास , फसल आदि

( ii ) आवंटन के पूर्व एवं पश्चात् वाले अंश ( Shares )

( iii ) आवंटन के बाद वाले ऋणपत्र ( Debentures after Allotment ) ;

( iv ) पुरानी भारतीय मुद्रा जो चलन में नहीं है ;

( v ) पुरानी और प्रचलित विदेशी मुद्राएं ;

( vi ) व्यापार चिह्न , एकस्व ख्याति , प्रतिलिप्याधिकार आदि ;

( vii ) कम्प्यूटर डिस्क अर्थात् सीडी पर बेची जाने वाली कोई भी सामग्री या विषय वस्तु ;

( viii ) फल , फूल , सब्जियों सहित सभी कृषि उपजें ;

( ix ) साझेदारी फर्म में साझेदारों का हित ( Interest of Partners in the Firm ) .

अनिश्चित विद्यमान माल ( Uncertain Existing Goods ) विक्रय अनुबन्ध की ऐसी विषयवस्तु ( माल ) , जो सुपुर्दगी योग्य स्थिति में तो है , किन्तु उसे पहचान कर या देखकर निश्चित या चिह्नित नहीं किया गया है , बल्कि वह सामान्य माल में ही रखा हुआ है , अनिश्चित विद्यमान माल कहलाता है . ऐसे माल का निश्चयीकरण केवल वर्णन से ही किया जाता है .

उदाहरणार्थ- कल्पना ई . वी . स्कूटी लि . से अल्पना ने तीन रंगों में उपलब्ध एक स्कूटी को खरीदने का अनुबन्ध किया तथा ब्रॉण्ड , मॉडल , डिजाइन , कीमत आदि सभी वर्णन के अनुसार सुनिश्चित कर लिए गए , केवल रंग तय करना बाकी है . यहाँ पर पसन्द के रंग की स्कूटी तो उपलब्ध या विद्यमान है , किन्तु वह सामान्य माल के साथ और अनिश्चित है .

गुमनाम नियोक्ता ( Unnamed Principal ) यदि किसी एजेन्ट द्वारा अपने नियोक्ता का नाम बताए बिना ही एजेन्सी व्यवसाय का कार्य किया जाता है तो ऐसे नियोक्ता को गुमनाम नियोक्ता कहा जाता है .

अप्रकट नियोक्ता ( Undisclosed Principal ) जब कोई एजेन्ट द्वारा अपने नियोक्ता का नाम भी प्रकट नहीं किया जाता है और न ही वह अपने आपको किसी का एजेन्ट होना प्रदर्शित करता है , तो ऐसे एजेन्ट का नियोक्ता अप्रकट नियोक्ता कहलाता है .

अनुसमर्थन का सिद्धान्त ( Principle / Doctrine of Ratification ) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 196 के अनुसार , जब कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिए बिना उसकी जानकारी एवं अनुमति के कोई कार्य करता है और दूसरा व्यक्ति उस कार्य की पुष्टि या स्वीकृति दे देता है , तो इसे अनुसमर्थन या पुष्टिकरण के सिद्धान्त पर आधारित एजेन्सी कहा जाता है , इसे कभी - कभी प्रत्यक्षतः ' पुष्टिकरण द्वारा एजेन्सी ' भी कहा जाता है .

किन्तु उल्लेखनीय है कि वैध पुष्टिकरण तभी माना जाता है जब कार्य दूसरे व्यक्ति की ओर से उसकी जानकारी व अनुमति के किया गया हो . इसी प्रकार वैध पुष्टिकरण के लिए यह भी अति आवश्यक है कि कार्य के समय नियोक्ता अस्तित्व में हो तथा कार्य से किसी को आर्थिक या शारीरिक नुकसान न हो . केवल भूतकालीन कार्यों का पुष्टिकरण ही वैध माना जाता है तथा पुष्टिकरण स्पष्ट या गर्भित भी हो सकता है .

विबन्धन द्वारा एजेन्सी ( Agency by Estoppel ) एजेन्सी का वह प्रकार या स्वरूप जिसमें एक नियोक्ता द्वारा अपने कार्य व्यवहार या उच्चारण से किसी अन्य व्यक्ति के दिलो - दिमाग में इस बात का विश्वास पैदा कर देता है कि अमुक व्यक्ति उसका एजेन्ट है , जबकि वास्तव में वह अमुक व्यक्ति या विशिष्ट व्यक्ति एजेन्ट नहीं है . फलस्वरूप , ऐसा नियोक्ता उस एजेन्ट द्वारा किए जाने वाले कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा .

विशेषज्ञों के मतानुसार ऐसी एजेन्सी अवास्तविक किन्तु दृश्यमान अधिकारों ( Apparent Authorities ) के कारण उत्पन्न होती है . ऐसी एजेन्सी को ' गत्यावरोध द्वारा एजेन्सी ' भी कहा जाता है .

उल्लेखनीय है कि विवन्धन या गत्यावरोध द्वारा एजेन्सी ' प्रदर्शन द्वारा एजेन्सी ' ( Agency by Holding out ) से भिन्न होती है , क्योंकि प्रदर्शन द्वारा एजेन्सी में प्रधान द्वारा अप्रत्यक्ष या ऊपरी तौर पर ही किसी के एजेन्ट होने का प्रदर्शन किया जाता है , जबकि गत्यावरोध द्वारा एजेन्सी में वह प्रत्यक्षतः यह विश्वास दिला देता है कि अमुक व्यक्ति उसका एजेन्ट है .

गौरतलब तथ्य यह भी है कि विबन्धन / गत्यावरोध द्वारा एजेन्सी तथा प्रदर्शन द्वारा एजेन्सी की दशा में नियोक्ता उन्हीं व्यक्तियों के लिए उत्तरदायी होता है जिनके समक्ष उसने प्रदर्शन किया हो या विश्वास दिलाया हो कि अमुक व्यक्ति उसका एजेन्ट है .

मौन अनुबन्ध ( Tacit Contract ) वह अनुबन्ध जिसकी उत्पत्ति पक्षकारों के शाब्दिक प्रस्ताव ( Offer ) और स्वीकृति ( Acceptance ) के आधार पर न होकर उनके आचरण / व्यवहार या कार्यों के कारण होती है , मौन या अव्यक्त अनुबन्ध कहलाता है . ऐसे अनुबन्धों में लिखित या मौखिक शब्दों का उपयोग नहीं किया जाता है , बल्कि व्यवहार से ही यह आभास होता है कि पक्षकारों ने प्रस्ताव एवं स्वीकृति का आचरण किया है , इसीलिए ऐसे अनुबन्धों को ' आभासीय अनुबन्ध भी कहा जाता है .

उल्लेखनीय है कि कभी - कभी मौन या गर्भित अनुबन्ध को अर्द्ध अनुबन्ध ( Quasi Contract ) मान लिया जाता है , जोकि गलत है . क्योंकि मौन अनुबन्ध पक्षकारों की स्वेच्छा से किए गए आचरण / कार्य / व्यवहार के कारण उत्पन्न होते हैं , जबकि अर्द्ध अनुबन्ध सदैव बिना इच्छा के उत्पन्न होते हैं और पक्षकारों को अनुबन्ध के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है अर्थात् अर्द्ध अनुबन्धों में राजनियमों की प्रभावशीलता स्वतः ही लागू हो जाती है समता के सिद्धान्त ( Principle of Equity ) के आधार पर सृजित होने वाले अर्द्ध अनुबन्ध पक्षकारों को व्यक्तिलक्षी अधिकार प्रदान करते हैं .

अग्रांकित दशाओं में अर्द्ध अनुबन्धों की उत्पत्ति स्वतः हो जाती है

( i ) अपने हितों की सुरक्षा के लिए किसी अन्य पक्षकार द्वारा देय धन का भुगतान करने पर ,

( ii ) खोई हुई वस्तु प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा दायित्वों का निर्वहन करने पर

( iii ) अनुबन्ध करने की क्षमता न रखने वाले व्यक्तियों की आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करने पर

( iv ) गलती / भूल अथवा उत्पीड़न के अधीन माल या रोकड़ देने पर .

एकपक्षीय और द्विपक्षीय अनुबन्ध ( Unilateral and Bilateral Contract ) जब अनुबन्ध के एक पक्षकार द्वारा अनुबन्ध के समय या उसके पूर्व ही अपने वचन या दायित्व को पूरा कर दिया जाता है तथा दूसरे पक्षकार को अपने वचन या दायित्व को पूरा करना बाकी है , तो ऐसे अनुबन्ध को एकपक्षीय अनुबन्ध कहा जाता है .

दूसरी ओर जब अनुबन्ध के दोनों ही पक्षकारों द्वारा अपने - अपने वचनों को पूरा करना बाकी है , तो ऐसे अनुबन्ध को द्विपक्षीय अनुबन्ध कहा जाता है .

अनुबन्ध के लिए सहमति एवं स्वतन्त्र सहमति ( Consent and Free Consent for Contract ) जब अनुबन्ध के सभी पक्षकार एक ही बात या तथ्य को एक ही अर्थ में समझते हैं तो उसे ' सहमति ' कहा जाता है , किन्तु व्यापारिक विनियामकों के अनुसार किसी अनुबन्ध की वैधता के लिए पक्षकारों की केवल सहमति का होना ही आवश्यक नहीं है , बल्कि वह सहमति स्वतन्त्र भी होनी चाहिए .

' स्वतन्त्र सहमति ' से आशय ऐसी सहमति से है जिस पर उत्पीड़न , अनुचित प्रभाव , कपट , मिथ्यावर्णन , भूल या त्रुटि आदि में से किसी भी घटक का प्रभाव नहीं पड़ा हो . यदि अनुबन्ध के लिए प्राप्त सहमति उत्पीड़न , अनुचित प्रभाव कपट या मिथ्यावर्णन से प्रभावित है , तो ऐसा अनुबन्ध पीड़ित पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थनीय अनुबन्ध ( Voidable Contract ) कहलाएगा , जबकि भूल से प्रेरित सहमति के आधार पर सृजित अनुबन्ध पूर्णतः व्यर्थ अनुबन्ध ( Void Contract ) माना जाता है .

अनुबन्ध के लिए प्रतिफल ( Consideration for Contract ) प्रत्येक वैध अनुबन्ध के लिए वैध प्रतिफल का होना अति आवश्यक है फिर भी यह देखा जाता है कि कभी - कभी बिना प्रतिफल वाले अनुबन्ध भी कर लिए जाते हैं , जोकि अपवादजनक परिस्थितियों को छोड़कर सदैव व्यर्थ ही होते हैं . वस्तुतः अनुबन्ध के लिए प्रतिफल से अभिप्राय उस पुरस्कार से है , जो पक्षकार को उसकी ओर से प्रदत्त वचन ( Promise ) के बदले में उसे प्राप्त होता है अर्थात् प्रतिफल के एवज में दूसरे पक्षकार का वचन क्रय किया जाता है .

उल्लेखनीय है कि ' प्रतिफल वचन ग्रहीता या किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा भी दिया जा सकता है तथा प्रतिफल का सम्बन्ध भूतकाल , वर्तमानकाल या भविष्यतकाल से हो सकता है . प्रतिफल वास्तविक और मूल्यवान होना चाहिए . न्यायाधीशों की राय में प्रतिफल की पर्याप्तता या अपर्याप्तता पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता अर्थात् ' कुल प्रतिफल ' ' अवश्य होना चाहिए इसी प्रकार प्रतिफल सदैव निश्चित होना चाहिए अर्थात् अनिश्चित प्रतिफल वाला अनुबन्ध अपनी वैधता को संकट में डाल सकता है .

प्रतिफल के लिए अजनबी व्यक्ति ( Stranger to Consideration ) अनुबन्ध के तृतीय पक्षकार की भूमिका में होता है और वह अनुबन्ध को प्रवर्तित कराने के लिए न्यायालय का सहारा ले सकता है , किन्तु ' अनुबन्ध के लिए अजनबी व्यक्ति ' ( Stranger to Contract ) अनुबन्ध को प्रवर्तित कराने के लिए अधिकृत नहीं होता है तथा वह अनुबन्ध के पक्षकारों के विरुद्ध वाद भी नहीं कर सकता .

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