भारत के वैज्ञानिक तथा विज्ञान संबंधी उपलब्धि

India's scientific and scientific achievements

गणित और नक्षत्र विज्ञान

भारत में प्राचीन काल में उच्च कोटि का विज्ञान और गणित विकसित हो चुका था। प्राचीन भारतीयों ने गणित और विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अंतर्गत अभूतपूर्व योगदान किया। इस खण्ड में हम गणित में हुए विकास और उन विद्वानों के विषय में पढ़ेंगे जिन्होंने इस कार्य में योगदान किया। आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि आधुनिक गणित के कई सिद्धांत वस्तुतः उस समय के प्राचीन भारतीयों को ज्ञात थे। फिर भी क्योंकि प्राचीन भारतीय गणितज्ञ आधुनिक पश्चिमी जगत के उन जैसे वैज्ञानिकों के समान आलेखन और प्रसारण में इतने चतुर नहीं थे, उनके योगदानों को वह स्थान नहीं मिल पाया जिसके वे योग्य थे। वास्तव में पश्चिमी दुनिया ने अधिकांश विश्व पर बहुत समय तक शासन किया जिससे उन्हें हर प्रकार से यहां तक कि ज्ञान के क्षेत्र में भी अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का अवसर मिल गया। आइए अब हम प्राचीन भारतीय गणितज्ञों के कुछ योगदानों पर दृष्टिपात करें।

बौधायन

बौधायन पहले विद्वान थे जिन्होंने गणित में कई अवधारणाओं को स्पष्ट किया जो बाद में पश्चिमी दुनिया द्वारा पुनः खोजी गयी। 'पाई' के मूल्य की गणना भी उन्हीं के द्वारा की गई। जैसा कि आप जानते हैं पाई वृत्त के क्षेत्रफल और परिधि को निकालने में प्रयुक्त होती है। जो आज पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जानी जाती है वह बौधायन के शुल्व सूत्रों में पहले से ही विद्यमान है, जो पाइथागोरस के जमाने से कई वर्ष पूर्व लिखे गये थे।

आर्यभट्ट

आर्यभट्ट पांचवीं शताब्दी के गणितज्ञ, नक्षत्रविद्, ज्योतिर्विद और भौतिकी के ज्ञाता थे। वह गणित के क्षेत्र में पथप्रदर्शक थे। 23 वर्ष की उम्र में उन्होंने आर्यभट्टीयम् लिखा जो उस समय के गणित का सारांश है। इस विद्वत्तापूर्ण कार्य में 4 विभाग हैं। पहले विभाग में उन्होंने बड़ी दशमलव संख्याओं को वर्णों में प्रकट करने की विधि वर्णित की। दूसरे विभाग में आधुनिक काल के गणित के विषयों के कठिन प्रश्न दिए गए हैं जैसे संख्या सिद्धान्त रेखागणित, त्रिकोणमिति और बीजगणित (एल्जेब्रा )। शेष दो विभाग नक्षत्र विज्ञान से सम्बद्ध हैं।

आर्यभट्ट ने बताया कि शून्य एक संख्या मात्र नहीं हैं बल्कि एक चिह्न है, एक अवधारणा है। शून्य के आविष्कार से ही आर्यभट्ट पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच की दूरी का सही सही मापन कर पाए। शून्य की खोज से ही ऋणात्मक संख्याओं की एक नई दिशा का भी द्वार खुल गया।

जैसा कि हमने देखा, आर्यभट्टीय के अंतिम दो विभाग नक्षत्र विज्ञान से सम्बद्ध हैं। स्पष्टतया आर्यभट्ट ने विज्ञान के क्षेत्र में, विशेष रूप से नक्षत्र विज्ञान में बहुत बड़ा योगदान किया।

प्राचीन भारत में नक्षत्र विज्ञान बहुत उन्नत था। इसे खगोलशास्त्र कहते हैं। खगोल नालन्दा में प्रसिद्ध नक्षत्र विषयक वेधशाला थी जहां आर्यभट्ट पढ़ते थे। वस्तुतः नक्षत्र विज्ञान बहुत ही उन्नत था और हमारे पूर्वज इस पर गर्व करते थे। नक्षत्र विज्ञान की इतनी उन्नति के पीछे शुद्ध पञ्चांग के निर्माण की आवश्यकता थी।

जिससे वर्षा चक्र के अनुसार फसलों को चुना जा सके, फसलों की बुआई का सही समय निर्धारित किया जा सके त्योहारों और ऋतुओं की सही तिथियां निर्धारित की जा सकें; समुद्री यात्राओं के लिए, समय के ज्ञान के लिए और ज्योतिष में जन्म कुण्डलियां बनाने के लिए पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो सके। नक्षत्र विज्ञान का ज्ञान विशेष रूप से नक्षत्रों और ज्वार भाटा का ज्ञान व्यापार के लिए बहुत आवश्यक था क्योंकि उन को रात के समय समुद्र और रेगिस्तानों को पार करना पड़ता था ।

हमारी पृथ्वी नामक ग्रह अचल है इस लोक प्रसिद्ध विचार को तिरस्छत करते हुए आर्यभट्ट ने अपना सिद्धांत बताया कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है। उसने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि सूर्य का पूर्व से पश्चिम की ओर जाना मिथ्या है, उनमें से एक उदाहरण था जब एक मनुष्य नाव में यात्रा करता है, तब किनारे के पेड़ उल्टी दिशा में दौड़ते हुए मजर आते हैं। उसने यह भी सही बताया कि चांद और अन्य ग्रह सूर्य की रोशनी के प्रतिविम्ब के कारण ही चमकते हैं। उसने चन्द्र ग्रहण और सूर्यग्रहण का भी वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया और कहा कि ग्रहण केवल राहु या केतु या किसी अन्य राक्षस के कारण नहीं होते ।अब आप स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं कि क्यों भारत के प्रथम उपग्रह का नाम जो आकाश में छोड़ा गया, आर्यभट्ट रखा गया।

ब्रंगुप्त

सातवीं शताब्दी से ब्रंगुप्त ने गणित को अन्य वैज्ञानिकों की अपेक्षा कहीं अधिक ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। उन्होंने अपने गुणन की विधियों में स्थान का मूल्य उसी प्रकार निर्धारित किया जैसा कि आजकल किया जाता है। उन्होंने ऋणात्मक संख्याओं का भी परिचय दिया और गणित में शून्य पर अनेक प्रक्रियाएं सिद्ध कीं। उन्होंने ब्रस्फुट सिणंत लिखा जिसके मध्यम से अरब हमारी गणितीय व्यवस्थाओं से परिचित हो सके।

भास्कराचार्य

भास्कराचार्य 12वीं शताब्दी के विख्यात व्यक्ति थे। वह कर्णाटक में बीजापुर में पैदा हुए। वह अपनी पुस्तक सिणंतशिरोमणि के कारण प्रसिद्ध हैं। इसके भी चार खण्ड हैं- लीलावती (गणित), बीजगणित (एल्जेब्रा), गोलामयाय और ग्रहगणित ( ग्रहों का गणित)

भास्कराचार्य ने बीजगणितीय समीकरणों को हल करने के लिए चक्रवात विधि का परिचय दिया। यही विधि छः शताब्दियों बाद यूरोपीय गणितज्ञों द्वारा पुनः खोजी गई जिसे वे चक्रीय विधि कहते हैं। 19वीं शताब्दी में एक अंग्रेज- जेम्स टेलर ने 'लीलावती' का अनुवाद किया और विश्व को इस महान छति से परिचित करवाया।

महावीराचार्य

जैन साहित्य में (ई.पू. 500 से 100 शताब्दी तक) गणित का व्यापक वर्णन है। जैन गुरुओं को द्विघाती समीकरणों को हल करना आता था। उन्होंने, भिन्न, बीजगणितीय समीकरण, श्रृंखलाएं, सेट सिद्धांत, लघुगणित (legarithms) घाताक (मगचव. दमदजे) आदि को बड़ी रोचक विधि से समझाया। जैन गुरु महावीराचार्य ने 850 (ई.पू.) में गणित सार संग्रह लिखा, जो आधुनिक विधि में लिखी गई पहली गणित की पुस्तक है। दी गई संख्याओं का लघुतम निकालने का आधुनिक तरीका भी उनके द्वारा वर्णित किया गया है। अतः जॉन नेपियर के विश्व के सामने इसे प्रस्तुत करने से बहुत पहले यह विधि भारतीयों को ज्ञात थी ।

विज्ञान

गणित की ही तरह, प्राचीन भारतीयों ने विज्ञान के विषय में भी अपना योगदान किया। आइए अब हम प्राचीन भारत के कुछ वैज्ञानिकों के योगदानों के विषय में जानें।

कणाद

कणाद, छः भारतीय दर्शनों में से एक वैशेषिक दर्शन के छठी शताब्दी के वैज्ञानिक थे। उनका वास्तविक नाम औलूक्य था । बचपन से ही वे बहुत सूक्ष्म कणों में रुचि रखने लगे थे। अतः उनका नाम कणाद पड़ गया। उनके आणविक सिद्धांत किसी भी आधुनिक आणविक सिद्धांतों से मेल खाते हैं। कणाद के अनुसार, यह भौतिक विश्व कणों अणु/एटम) से बना है जिसको मानवीय चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। इनका पुनः विखण्डन नहीं किया जा सकता। अतः न इनको विभाजित किया जा सकता है न ही इनका विनाश हो सकता है। निस्संदेह यह वही तथ्य है जो आधुनिक आणविक सिद्धांत भी बताता है।

वराहमिहिर

भारत में प्राचीन काल के एक अन्य सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक थे वराहमिहिर वह गुप्त काल में हुए। वराहमिहिर ने जलविज्ञान, भूगर्भीय विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान के क्षेत्र में महान योगदान किया। वह पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह दावा किया कि दीमक और पौधे भी भूगर्भीय जल की पहचान के निशान हो सकते हैं। उसने छः पशुओं और तीस पौधों की सूची दी जो पानी के सूचक हो सकते हैं। उन्होंने दीमक (जो लकड़ी को बर्बाद कर देती है) के विषय में बहुत महत्त्वपूर्ण सूचना प्रदान की कि वे बहुत नीचे पानी के तल तक जाकर पानी लेकर आती हैं और अपनी बांबी (घर) को गीला करती है। एक अन्य सिद्धान्त, जिसने विज्ञान की दुनिया को आकृष्ट किया वह है भूचाल मेघ सिद्धांत जो वराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में लिखा। इस संहिता का 32वां अध्याय भूचालों के चिह्नों को दर्शाता है। उन्होंने भूचालों का संबंध नक्षत्रों के प्रभाव, समुद्रतल की गतिविधियों, भूतल के जल, असामान्य मेघों के बनने से और पशुओं के असामान्य व्यवहार से जोड़ा है।

एक अन्य विषय जहां वराहमिहिर का योगदान उल्लेखनीय है वह है ज्योतिष /नक्षत्र विज्ञान/प्राचीन भारत में फलित ज्योतिष को बहुत उच्च स्थान दिया जाता था और वह प्रथा आज तक भी जारी है। ज्योतिष का, जिसका अर्थ है प्रकाश की विद्या, मूल वेदों में है। आर्यभट्ट और वराहमिहिर के द्वारा एक व्यवस्थित रूप में वैज्ञानिक ढंग से इस विद्या का प्रस्तुतीकरण किया गया। आर्यभट्ट की आयभटीयम् के दो विभाग नक्षत्र विज्ञान पर आधारित हैं जो वस्तुतः फलितज्योतिष का आधार हैं। फलित ज्योतिष भविष्यवाणी करने की विद्या है। विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में वराहमिहिर का स्थान था । वराहमिहिर की भविष्यवाणियां इतनी शुद्ध होती थीं कि विक्रमादित्य ने उन्हें 'वराह' की उपाधि दी।

नागार्जुन

नागार्जुन दसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक थे। उनके परीक्षणों का प्रमख उद्देश्य था मूल धातुओं को सोने में बदलना जैसाकि पश्चिमी दुनिया में कीमियागर करते थे। यद्यपि वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। फिर भी वह एक ऐसा तत्त्व बनाने में सफल हुआ जिसमें सोने जैसी चमक थी। आज तक यही तकनीक नकली जेवर बनाने के काम आती है। अपने ग्रंथ रसरत्नाकर में उन्होंने सोना, चांदी, टीन और तांबा निकालने का विस्तार से वर्णन किया है।

प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान / आयुर्वेद और योग

जैसाकि आप ने पढ़ा; प्राचीन भारत में वैज्ञानिक उपलब्धियां बहुत उन्नत स्तर की थीं। अपने युग के अनुसार, चिकित्सा विज्ञान भी बहुत उन्नत था। प्राचीन भारत में विकसित चिकित्सा विज्ञान की देसी व्यवस्था आयुर्वेद है। आयुर्वेद शब्द का शाब्दिक अर्थ है अच्छा स्वास्थ्य लंबी आयु औषधि को प्राचीन भारतीय व्यवस्था न केवल बीमारियों की चिकित्सा करने में सहायता करती है बल्कि यह बीमारियों का कारण और लक्षण भी मालूम करने का प्रयत्न करती है। यह स्वस्थ और बीमार दोनों की ही मार्गदर्शिका है। यह स्वास्थ्य को तीनों दोषों की समवस्था और इन्हीं तीनों दोषों की विषमता का बीमारी के रूप में परिभाषित करती है। जड़ीबूटियों की औषधियों से किसी बीमारी की चिकित्सा करते हुए यह बीमारी की जड़ पर प्रहार करके उसके कारणों को दूर करने का उद्देश्य रखती है। आयुर्वेद का प्रमुख उद्देश्य स्वास्थ्य और दीर्घायु है। यह हमारी पृथ्वी का प्राचीनतम चिकित्सा शास्त्र है। आयुर्वेद का एक अन्य ग्रन्थ 'आत्रेय संहिता' विश्व की प्राचीनतम पुस्तकों में से है। चरक को आयुर्वेदिक औषधि का जनक कहा जाता है और सुश्रुत को शल्यचिकित्सा का सुश्रुत, चरक, माधव; वाङ्भट्ट और जीवक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। क्या आप जानते हो कि आयुर्वेद अब पिछले कुछ समय से पश्चिमी जगत में भी लोकप्रिय होता जा रहा है। इसका प्रधान कारण यह है कि पश्चिमी मूल की आधुनिक एलोपेथी के मुकाबले इसके कई लाभ हैं।

सुश्रुत

सुश्रुत शल्यचिकित्सा के क्षेत्र में अग्रणी हुए। वह शल्य चिकित्सा को चिकित्साकला की सर्वोत्तम शाखा समझते थे जिसका बहुत कम निष्फल होने का भय है। उसने एक मृत शरीर की सहायता से शरीर की रचना का अध्ययन किया। सुश्रुत संहिता में प्रायः 1100 से भी अधिक बीमारियों का वर्णन है जिनमें 26 प्रकार के मूत्र रोग दिए गए हैं। 760 से भी अधिक क जड़ीबूटियों का वर्णन किया गया है। पौधों की जड़ें, छाल, रस, फूल आदि सभी का प्रयोग किया जाता था। दालचीनी, तिल, काली मिर्च, इलायची, अदरक आदि आज भी घरेलू औषधियों के रूप में प्रयोग की जाती हैं।

सुश्रुत संहिता में विस्तृत अमययन के लिए किसी शव को चुनने और सुरक्षित रखने की भी विधि बताई गई है। किसी वृद्ध मनुष्य का शरीर या जो किसी भयंकर बीमारी से मृत्यु को प्राप्त हुआ हो, उसका शरीर मुख्यतः अमययन के लिए नहीं चुना जाता था। शव को पहले पूरी तरह साफ करके फिर पेड़ की छाल में सुरक्षित रखा जाता था। फिर इसे एक पिंजरे में बंद करके नदी में किसी स्थान पर सावधानीपूर्वक छुपा दिया जाता था। नदी के जल के प्रवाह से शरीर नरम पड़ जाता था। सात दिन के बाद फिर इसे नदी से निकालते थे। तदुपरान्त घास की जड़ों, बालों और बांस की तीलियों से बने ब्रश से इसे साफ करते थे। ऐसा करने के पश्चात् शरीर के अंदर और बाहर के अंग साफ साफ नजर आने लगते थे।

सुश्रुत का सबसे बड़ा योगदान सुनम्य चिकित्सा (प्लास्टिक सर्जरी) और आंखों के आपरेशन (मोतिया बिंद निकालना) के क्षेत्र में हुआ। उस समय में नाक या कान काटना एक सामान्य दण्ड था। इन अंगों का लगाना या युद्ध में कटे अंगों का जोड़ना किसी वरदान से कम न था । सुश्रुत संहिता में इन शल्यक्रियाओं का क्रमशः बहुत शुद्ध विवरण दिया गया है। आश्चर्य की बात है कि जो क्रम सुश्रुत द्वारा इस शल्य चिकित्सा के विषय में अनुपालन किया जाता था वही व्म आज के आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी के चिकित्सकों द्वारा भी अपनाया जा रहा है। सुश्रुत संहिता में शल्यचिकित्सा में प्रयोग होने वाले यन्त्रों का भी वर्णन है। कुछ गंभीर प्रकार की शल्यव्यिा के उदाहरण हैं गर्भ में से शिशु को निकालना, जख्मी मलाशय को ठीक करना, मूत्राशय से पत्थरी निकालना आदि । क्या यह रोचक और साथ ही आश्चर्यजनक नहीं प्रतीत होता ?

चरक

चरक प्राचीन भारतीय औषध विज्ञान का जनक माना जाता है। वह कनिष्क के दरबार में राजवैद्य था। उसकी औषमाविज्ञान पर लिखी पुस्तक चरकसंहिता अतिप्रशंसनीय ग्रंथ है। इसमें बहुत बड़ी संख्या में रोगों का वर्णन किया गया है और साथ ही उनके कारणों का पता लगाने की विधियों और उनके इलाज के तरीके भी बताए गए हैं। उसी ने सर्वप्रथम पाचन क्रिया, चयापचय (metabolism) रोगों की निवारक क्षमता को स्वास्थ्य के लिए महत्त्वपूर्ण माना है और इसीलिए चरकसंहिता में चिकित्सा विज्ञान में रोग की चिकित्सा करने की अपेक्षा रोग के कारण को दूर करने पर अधिक बल दिया गया है। चरक वंशप्रक्रिया के भी मूल सिद्धांतों को जानता था। क्या यह तथ्य आपको मंत्रमुग्ध नहीं कर देता कि हजारों वर्ष पूर्व चिकित्सा विज्ञान भारत में इतनी उन्नत अवस्था में था?

योग और पतंजलि

आयुर्वेद से सम्बद्ध एक अन्य विज्ञान प्राचीन भारत में विकसित हुआ जिसे योग कहते हैं और जिसके द्वारा औषधि के बिना ही शारीरिक और मानसिक धरातल पर चिकित्सा की जाती है। योग शब्द संस्कृत के योक्त शब्द से बना है इसका शाब्दिक अर्थ है मन को आत्मा के साथ जोड़ना और बाहरी इन्द्रियों के विषयों से विरक्त करना । अन्य विज्ञानों के समान इसकी जड़े भी वेदों में ही हैं। यह चित्त को परिभाषित करता है अर्थात् विचारों, भावों और मनुष्य की चेतना को पवित्र करके एक संतुलन की स्थिति को पैदा करना । योग वह शक्ति है जो चेतना को पवित्र करके दिव्य अनुभूति के स्तर तक पहुंचाती है। योग शारीरिक भी है और मानसिक भी। शारीरिक योग हठयोग कहलाता है। सामान्यतया इसका उद्देश्य होता है बीमारियों को दूर करना और शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करना। राजयोग मानसिक योग है। इसका उद्देश्य है आत्म प्राप्ति और शारीरिक, मानसिक भावनात्मक और आध्यात्मिक संतुलन के द्वारा बन्धनों से मुक्ति ।

योग एक ऋषि से दूसरे ऋषि तक मौखिक रूप से पहुंचा। इस विज्ञान को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय पतंजलि को जाता है। पतंजलि के योग सूत्रों में ॐ ईश्वर का प्रतीक बताया गया है। वह ॐ को एक अंतरिक्षीय ध्वनि बताता है जो हर समय आकाश में निरंतर व्याप्त रहती है और केवल प्रबुद्ध को ही पूरी तरह ज्ञात होती है। योग सूत्रों के अतिरिक्त पतंजलि ने एक ग्रंथ औषधविज्ञान पर भी लिखा और पाणिनि के व्याकरण पर भाष्य लिखा जो महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।

मध्यकाल में विज्ञान

जैसा कि आप जानते हैं, मध्यकाल में मुस्लिम भारत में आए। इस समय तक परम्परागत स्वदेशी शास्त्रीय शिक्षा पहले ही पिछड़ चुकी थी। इस काल में शिक्षा की वह व्यवस्था जो अरब देशों में प्रचलित थी, धीरे-धीरे अपनाई जाने लगी। परिणामस्वरूप मदरसों और मकतबों की स्थापना हुई। इन संस्थाओं को शाही संरक्षण प्राप्त था। कई स्थानों पर खोले गए इन मदरसों की शृंखला में समान पाठ्यचर्या सामग्री पढ़ाई जाती थी। दो भाई शेख अब्दुल्ला और शेख अजीजुल्लाह जो तार्किक विज्ञान में विशेषज्ञ थे, सम्बल और आगरा के मदरसों के प्रधान बने। देश में स्थानीय रूप से प्राप्त विद्वत्ता के अलावा अरब, पर्शिया और मध्य एशिया से भी विद्वानों को मदरसों में शिक्षा का कार्यभार सम्भालने के लिए बुलाया गया।

क्या आप जानते हैं कि मुस्लिम शासकों ने प्राथमिक विद्यालयों की पाठ्यचर्चा को सुधारने का प्रयत्न किया। कुछ आवश्यक जैसे गणित, मापन विज्ञान, रेखागणित, नक्षत्रविज्ञान, लेखा जोखा, लोकप्रशासन और कृषि आदि विषय प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में समाहित किए गए। यद्यपि शासकों द्वारा शिक्षाओं में सुधार लाने के लिए विशेष प्रयत्न किए गए थे, लेकिन विज्ञान में कुछ विशेष प्रगति नहीं हुई। भारतीय पारिभाषिक वैज्ञानिक संस्कृति और अन्य देशों में प्रचलित मध्ययुगीन विज्ञान के प्रति उपागम में एक प्रकार की संगति बिठाने के प्रयत्न किए गए। आइए अब हम देखें कि इस अवधि में विभिन्न क्षेत्रों में क्या क्या प्रगति हुई ।

शाही घरानों और सरकारी विभागों में खाद्यसामग्री, भण्डारण और अन्य साधन प्रदान करने के लिए बड़ी-बड़ी कार्यशालाएं जिन्हें कारखाना कहा जाता था, बनाई गई। ये कारखाने केवल उत्पादन की संस्थाओं के रूप में ही नहीं कार्य करते थे बल्कि युवा वर्ग को तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण भी प्रदान करते थे। इन कारखानों ने विभिन्न शाखाओं में कलाकार और हस्तशिल्प में प्रशिक्षित युवा तैयार किए जिन्होंने बाद में अपने स्वतंत्र कारखाने भी स्थापित कर लिए।

गणित

इस अवधि में गणित के क्षेत्र में अनेक ग्रंथ लिखे गए। नरसिंह दैवज्ञ के पुत्र नारायण पंडित गणित में अपने ग्रंथ के लिए सुप्रसिद्ध हुए गणितकौमुदी और बीजगणितावतंस । गुजरात में गंगाधर ने लीलावती करमदीपिका, सिणन्तदीपिका और लीलावती व्याख्या लिखी । ये प्रसिद्ध ग्रंथ थे जिन्होंने त्रिकोणमितिक पद जैसे साइन, कोसाइन, टेन्जेन्ट और कोटेन्जेन्ट निकालने के नियम बनाए। नीलकण्ठ सोमसुतवन ने तंत्रसंग्रह लिखा जिसमें भी त्रिकोणमितिक प्रक्रियाओं के लिए नियम दिये गए हैं।

गणेश दैवज्ञ ने लीलावती पर व्याख्या बुणिवलासिनी लिखी थी और जिसमें अनेक उदाहरण दिए गए थे। वल्लाल परिवार के छष्ण ने नवांकुर' की रचना की जो भास्कर द्वितीय के बीजगणित पर व्याख्या थी और जिसमें प्रथम और द्वितीय क्रम के अंतर्ममय सरणियों (Intermediate equations) पर नियमों की व्याख्याएं दी गई थीं। नीलकण्ठ ज्योतिर्विद ने 'तांत्रिक' ग्रंथ लिखा जिसमें अनेक पर्शियन तकनीकी पदों का परिचय दिया गया था। अकबर के कहने पर फैजी ने भास्कराचार्य के बीजगणित का अनुवाद किया। शिक्षा व्यवस्था में अन्य विषयों के साथ अकबर ने गणित के भी पढ़ाये जाने पर बल दिया। नसीरुद्दीन तुसी गणित का एक अन्य विद्वान था ।

जीवविज्ञान

इसी प्रकार जीवविज्ञान के क्षेत्र में भी उन्नति हुई। 13वीं शताब्दी में हंसदेव ने 'मृगपक्षिशास्त्र' नामक ग्रंथ का निर्माण किया । यह ग्रंथ शिकार के कुछ पशुपक्षियों के विषय में जानकारी देता है यद्यपि वे सभी तथ्य विज्ञान-परक नहीं हैं। मुस्लिम शहंशाह जो | योद्धा और शिकारी हुआ करते थे, अपने पास शिकार के लिए बहुत से पशु रखते थे जैसे घोड़े, कुत्ते, चीते और बाज। इसमें जंगली और पालतू दोनों ही प्रकार के पशुओं का वर्णन किया गया है। बाबर और अकबर यद्यपि दोनों ही राजनैतिक गतिविधियों में उलझे रहते थे फिर भी उन्होंने इस ग्रंथ को पढ़ने के लिए समय निकाला। अकबर को हाथी और घोड़े जैसे पालतू पशुओं की अच्छी नसल पैदा करवाने का बेहद शौक था। जहांगीर ने अपनी कृति तुजुके जहांगीरी में नसल को सुधारने और संकर नस्ल पैदा करने के अपने परीक्षण और अनुभव अंकित किए हैं। उन्होंने पशुओं की 36 नस्लों का वर्णन किया है। उनके दरबारी कलाकार विशेषतः मंसूर ने पशुओं के भव्य और सही चित्र बनाए। इनमें से कुछ तो अभी भी कई संग्रहालयों और निजी संग्रहों में सुरक्षित हैं। प्रकृति प्रेमी होने के कारण जहांगीर पौधों के अध्ययन में भी रुचि रखता था। उसके दरबारी कलाकारों ने फूलों के चित्रों में प्राय: 57 पौधे को चित्रित किया है।

रसायन विज्ञान क्या आप जानते है कि मध्यकाल में कागज का प्रयोग भी प्रारंभ हो गया था। कागज के उत्पादन में रसायन शास्त्र का महत्त्वपूर्ण प्रयोग होता था। कश्मीर, सियालकोट, जाफराबाद, पटना, मुर्शिदाबाद, अहमदाबाद, औरंगाबाद और मैसूर कागज़ बनाने के सुप्रसिद्ध केन्द्र थे। कागज बनाने की तकनीक प्राय: पूरे देश में समान थी केवल विभिन्न कच्चे माल से लुगदी बनाने का तरीका अलग अलग था |

मुगलों को बारूद और तोपों में उसके प्रयोग की तकनीक का ज्ञान था। भारतीय हस्तशिल्पियों ने इस तकनीक को सीखा और समुचित विस्फोटक पदार्थों की रचना की। शुक्राचार्य द्वारा रचित शुक्रनीति में कैसे शोरा, गंधक और कोयले को विभिन्न अनुपातों में मिलाकर विभिन्न प्रकार की बंदूकों में प्रयोग करने के लिए बारूद बनाया जा सकता है, इसका वर्णन दिया गया है। मुख्य प्रकार की आतिशबाजी में वे बम्ब सम्मिलित है जो तेजी से आकाश में जाते हैं, अग्नि के स्फुलिंग पैदा करते हैं, जो विभिन्न रंगों में चमकते हैं और धमाके के साथ फट जाते हैं। आइने अकबरी में अकबर के इत्र कार्यालय के नियमों का वर्णन है। गुलाब का इत्र एक बहुप्रसिद्ध इत्र था जो सम्भवत नूरजहां द्वारा खोजा गया था।

नक्षत्रविज्ञान

नक्षत्र एक अन्य क्षेत्र था जो इस काल में खूब विकसित हुआ। नक्षत्रविज्ञान में पहले से सुस्थापित नक्षत्र विषयक अवधारणाओं पर अनेक टीकाएं लिखी गई। महेन्द्र सूरी ने जो बादशाह फीरोज शाह का दरबारी नक्षत्र वैज्ञानिक था, एक नक्षत्र विषयक यंत्र 'यन्त्रज' बनाया। परमेश्वर और महाभास्करीय, दोनों ही केरल में प्रसिद्ध नक्षत्रविज्ञानियों के कुल से थे और पंचाग बनाते थे। नीलकण्ठ सोमसुतवन ने आर्यभटीय पर टीका लिखी। कमलाकर ने इस्लामिक नक्षत्रविज्ञान विषयक विचारों का अमययन किया। वह इस्लामिक ज्ञान के विषय में प्रमाण माना जाता था। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह नक्षत्रविद्या के संरक्षक थे। उन्होंने दिल्ली उज्जैन, वाराणसी, मथुरा और जयपुर में पांच नक्षत्रविषयक वेधशालाएं बनवाई।

औषधविज्ञान

शाही संरक्षण के अभाव में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति प्राचीन काल के समान इतनी उन्नति नहीं कर पाई, फिर भी आयुर्वेद पर कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई जैसे शूर्गधर संहिता और चिकित्सा संग्रह की रचना वंगसेन ने यगर्तवज्र और भावप्रकाश की रचना भावमिश्र ने की। 13वीं शताब्दी में शूर्गधर संहिता लिखी गई जिसमें औषध बनाने की सामग्री में अफीम का भी उपयोग सम्मिलित है और निदानात्मक उद्देश्यों से मूत्र परीक्षण का भी जिक्र है। रसचिकित्सा व्यवस्था के धातु मिश्रण सहित मादक द्रव्यों तथा आयातित द्रव्यों का भी वर्णन है।

रसचिकित्सा व्यवस्था में अनेक प्रकार की धातुज औषधियों का वर्णन है जिनमें कुछ पारे से बनाई जाती थीं और कुछ बिना पारे के सिद्ध व्यवस्था जो तमिलनाडु में सर्वाधिक प्रचलित थी, उसका श्रेय उन सिद्धों को जाता है जिन्होंने धातुज औषधियों से युक्त अनेक प्रकार के आयुवर्धक नुस्खों को तैयार किया।

मध्यकाल मैं यूनानी तिब्ब औषध व्यवस्था भी खूब पनपी अली बिन रब्बन ने संपूर्ण यवन औषध ज्ञान और साथ ही भारतीय औषध विज्ञान का सारांश अपनी रचना 'फिरदौसे हिकमत' में दिया है। प्रायः 11वीं शताब्दी में मुसलमानों के साथ यूनानी चिकित्सा पद्धति भी भारत में आई और अपने विकास के लिए संरक्षण भी प्राप्त किया। हकीम दिया मुहम्मद ने एक पुस्तक 'मजिन्ये दिये ' लिखी जिसमें अरबी, पर्शियन और आयुर्वेदिक औषधीय विज्ञान को समाहित किया। फीरोज शाह तुगलक ने भी एक पुस्तक तिब्बे फीरोजशाही लिखी। तिब्बे औरंगजेबी जिसका श्रेय औरंगजेब को दिया जाता है, आयुर्वेदिक स्रोतों पर आमाारित है। नूरुद्दीन मुहम्मद की मुसलजाति दाराशिकोही जो दाराशिकोह को समर्पित है, ग्रीक औषध विज्ञान का वर्णन करती है और अंत में प्राय: पूरी की पूरी आयुर्वेदिक औषधियों का निर्देश करती है।

कृषि

मध्यकाल में कृषि के तरीके प्रायः वैसे ही थे जैसे प्रारंभिक भारत में थे। विदेशी व्यापारियों के कारण कुछ नई फसलों के उत्पादन में, वृक्षों और उद्यान संबंधी पौधों के रोपने में कुछ आवश्यक परिवर्तन किए गए। प्रमुख फसलें थीं- गेहूं, चावल, जौ, बाजरा, दालें, तिलहन, कपास, गन्ना और नील पश्चिमी घाटों पर उनम कोटि की काली मिर्च उगाई जाती थी और कश्मीर केसर और फलों के लिए पूर्ववत् प्रसिद्ध था। तमिलनाडु से अदरक और दालचीनी, केरल से इलायची, चन्दन और नारियल अधिक प्रसिद्ध होते जा रहे थे। तम्बाकू, मिर्चे, आलू, अमरूद, शरीफा, काजू और अनानास आदि वे महत्त्वपूर्ण पौधे थे जो भारत में 16वीं और 12वीं शताब्दी में भारत में आए। इसी काल में ही मालवा और बिहार क्षेत्रों में पोस्त के पौधों से अफीम की पैदावार भी प्रारंभ हो गई। संशोधित उद्यान संबंधी तरीकों का बहुत सफलतापूर्वक प्रयोग होने लगा। 16वीं शताब्दी के मध्य में गोआ के येशु सम्राजियों द्वारा विधिपूर्वक आम की कलम भी लगानी प्रारंभ की गई। शाही मुगल उद्यान समुचित क्षेत्र थे जहां व्यापक तौर पर फलों के बाग लगाए जाने लगे। सिंचाई के लिए कुँए, तालाब, नहर, रहट, चरस और देकली ( चमड़े की बनी एक प्रकार की बाल्टी जिसका जुते हुए बैलों की सहायता से पानी ले जाने के लिए किया जाता था) आदि का प्रयोग होता था। आगरा क्षेत्र में रहट का प्रयोग किया जाता था। मध्यकाल में भूमि मापन और भूमि श्रेणीकरण की व्यवस्था द्वारा राज्य में कृषि को एक मजबूत आधार प्रदान किया गया जो शासकों और किसानों दोनों के ही लिए लाभदायक था।

आधुनिक भारत के वैज्ञानिक

आधुनिक भारत में वैज्ञानिक विचारों के विकास का श्रेय इस काल के वैज्ञानिकों को जाता है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सर सी वी रमन भारतीय वैज्ञानिक चिंतन धारा में अभूतपूर्व परिवर्तन लाए। डा. होमी जे भाभा ने, जिन्हें हमारी आणविक भौतिकी का जनक कहा जाता है, भारतीय विज्ञान का भविष्य पहले ही लिख डाला था। वनस्पति शास्त्र के क्षेत्र में जे सी बोस, परमाणु ऊर्जा और औद्योगीकरण के क्षेत्र में डा. विक्रम साराभाई, रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में डा. ए.पी.जे. अब्दुलकलाम आदि वैज्ञानिकों के क्रान्तिकारी परिवर्तनों ने आधुनिक भारत का गौरव बढ़ाया।

श्रीनिवास रामानुजन (1887-1920 ई.)

श्रीनिवास रामानुजन जो श्रीनिवास आयंगर रामानुजन के नाम से विख्यात हैं, भारत के प्रतिभाशाली इस गणितज्ञ का जन्म 22 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु में इरोड नामक स्थान पर हुआ। बाद में इनके माता-पिता चेन्नई से 160 किलोमीटर दूर कुम्बकोणम चले गए। रामानुजन ने कुम्बकोणम में टाउन हॉल स्कूल में अमययन किया जहाँ उन्होंने अपने आप को प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध किया। उनकी गणित में अद्वितीय रुचि थी । गणितीय आपों से उनका स्वाभाविक लगाव था। स्कूल में 13 वर्ष की आयु में उन्हें एक पुस्तक मिली जिसका नाम था 'सिनोप्सिस ऑफ एलीमेन्टेरी रिजल्टस इन प्योर मेथेमेटिक्स', जिसके लेखक थे जी. एस. कर। पुरानी होने पर भी इस पुस्तक ने उनको गणित की दुनिया से परिचित करवाया। उन्होंने गणित के क्षेत्र में अपने विचार विकसित करना और आगे कार्य करना प्रारंभ कर दिया। वह अपने विचारों और परिणामों को नोट करने लगे और अपने परिणामों पर अपने नोट्स बनाने लगे। ऐसी तीन शोधपरक डायरियाँ जिनमें उनका अन्वेषण कार्य भरा हुआ है, आज हमें उपलब्ध हैं। उन्हें रामानुज की फ्रेंड नोटबुक्स कहा जाता है। वह अपनी कालेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाये क्योंकि उनका सारा समय गणित में ही बीत जाता था। वे अपने विचारों को विकसित करते रहे और नई-नई समस्याओं को प्रस्तुत करके उनके समाधान 'जर्नल ऑफ इण्डियन मैथेमेटिक्स' पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित करते रहे। 1911 में उन्होंने इसी पत्र में 'बरनौली संख्याएँ' विषय पर एक बहुमुल्य अनुसंधान- पत्र प्रकाशित किया। इस पत्र से उन्हें पहचान मिली और वह मद्रास के शिष्टजनों में एक गणित विषयक विशिष्ट प्रतिभा के रूप में प्रसिद्ध हो गए। औपचारिक शिक्षा के अभाव में उन्हें गुजारा चलाना कठिन हो गया। बड़ी मुश्किल से उन्हें मद्रास पोर्ट ट्रस्ट (Madras Port Trust) में एक क्लर्क की नौकरी मिली जो अंत में उनके लिए भाग्यशाली सिद्ध हुई। यहाँ वे अनेक ऐसे लोगों के संपर्क में आए जिन्होंने गणित में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। उन्हें जी एच् हार्डी (G.H. Hardy) द्वारा लिखित एक पुस्तक 'आर्डरज ऑफ इनफिनिटि प्राप्त हुई। उन्होंने हार्डी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने 120 प्रमेय और सूत्र लिखे। हार्डी ने तुरंत उनकी प्रतिभा को पहचान लिया और इसके जवाब में उन्होंने लंदन तक की यात्रा की व्यवस्था कर दी। अपेक्षित योग्यता न होने पर भी उन्हें ट्रिनिटी कालेज में प्रवेश की अनुमति मिल गई जहाँ उन्होंने दो साल से भी कम अवधि में ही बैचलर ऑफ साइंस की उपाधि प्राप्त कर ली। उन्होंने हार्डी और जे ई लिटलवुड के साथ एक उत्तम टीम बनाई और गणित के क्षेत्र में आश्चर्यजनक योगदान किए। उन्होंने लंदन में अनेक शोधपत्र प्रकाशित किए। वह लंदन की रायल सोसाइटी के फेलो चुने जाने वाले दूसरे भारतीय थे और ट्रिनिट कालेज के फैलो चुने जाने वाले प्रथम भारतीय थे।

रामानुजन का संख्याओं से अत्यधिक लगाव था। 1917 में वह बहुत अधिक बीमार पड़ गये लेकिन संख्याएँ अभी भी उनकी मित्र बनी रहीं यद्यपि उनका शरीर धोखा देता जा रहा था। दुर्भाग्यवश उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही चला गया और वह 1919 में भारत लौट आए। एक वैज्ञानिक पहचान और प्रतिष्ठा के साथ वे 1920 में मृत्यु को प्राप्त हो गए। उनकी गणितीय प्रतिभा इस बात का प्रमाण है कि भारत वास्तव में महान गणितीय विचारों का जन्म स्थान और स्रोत रहा है।

चन्द्रशेखर वी रमन ( 1888 1970 ई.)

चन्द्रशेखर वी रमन जो सी वी रमन के नाम से प्रसिद्ध हैं, न केवल एक महान वैज्ञानिक थे बल्कि मानव कल्याण और मानवीय सम्मान की वृद्धि में विश्वास करते थे। उन्होंने 1930 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार प्राप्त किया और यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले वह पहले एशियाई थे।

श्री सी वी रमन का जन्म 7 नवंबर, 1888 ई. में तमिलनाडु में तिरूचिरापल्ली नगर में हुआ था। उनके पिता भौतिकी और गणित के प्रोफेसर थे। वह संस्कृत साहित्य, संगीत और विज्ञान के वातावरण में पले बड़े हुए। प्रकृति ने उन्हें तीव्र एकाग्रता, बुद्धि और अन्वेषण की प्रवृत्ति प्रदान की थी। बचपन में भी वह बाल प्रतिभा के रूप में प्रसिद्ध थे। वह भारतीय ऑडिट और अकाउन्ट्स परीक्षा में प्रथम आए और 19 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता में वित्त विभाग में सहायक अकाउन्टेंट जनरल के पद पर नियुक्त कर दिए गए। उन्होंने विज्ञान के प्रति अपनी रूचि के कारण इस उच्च पद का भी बलिदान कर दिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय के सांइस कालेज में भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में कार्य करने लगे। संगीत में गहरी रुचि होने के कारण उन्होंने संगीत के वाद्ययंत्रों, वीणा, वायलिन, तबला और मृदंग पर काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने लंदन की रायल सोसाइटी में तार वाद्य यंत्रों के सिद्धांत पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया। 1924 में वह रायल सोसायटी के फेलो बना दिए गए।

लंदन की ओर अपनी यात्रा के समय वह समुद्र के नीले रंग से बहुत अधिक प्रभावित हुए। वह यह जानने को उत्सुक हो उठे कि इतनी विशाल तरंगों के उछाल के उपरांत भी पानी का रंग नीला ही क्यों रहता है। तब उन्हें अंतर्ज्ञान की झलक प्राप्त हुई कि यह पानी के अणुओं द्वारा सूर्य के प्रकाश के बिखरने के कारण होता है। उन्होंने अनेक अनुसंधान किए और प्रकाश के आणविक बिखराव पर लंबा शोध प्रबंध तैयार करके लंदन की रायल सोसायटी को भेज दिया। विज्ञान जगत उनके मस्तिष्क की प्रतिभा की चमक से आश्चर्यचकित रह गया।

रमन प्रभाव

जब एक रंग का प्रकाश पुंज एक पारदर्शी पदार्थ से गुजरता है, तो वह बिखर जाता है। रमन ने इस बिखरे हुए प्रकाश का अध्ययन किया। उन्होंने देखा कि पानी में डाली गई एक प्रमुख प्रकाश की रेखा के समानान्तर दो बहुत कम चमक वाली रेखाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। इससे यह ज्ञात होता है यद्यपि पानी में डुबोया गया प्रकाश एकवर्णी था परंतु बिखरा हुआ प्रकाश एकवर्णी नहीं था। इस प्रकार प्रकृति का एक बहुत बड़ा रहस्य उनके समक्ष उद्घाटित हो गया। यह परिवर्तन रमन प्रभाव के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया और बिखरे हुए प्रकाश की विशेष रेखाएँ भी 'रमन रेखाएँ' के नाम से प्रसिद्ध हो गईं। यद्यपि वैज्ञानिक इस प्रश्न पर विवाद करते रहे हैं कि क्या प्रकाश लहरों के समान हैं अथवा कणों के? लेकिन रमन प्रभाव ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रकाश छोटे-छोटे कणों से मिल कर बनता है जिन्हें फोटोन कहा जाता है।

डा. रमन एक महान शिक्षक और एक महान पथप्रदर्शक भी थे। वह अपने छात्रों में अत्यधिक आत्मविश्वास भर देते थे। उनका एक विद्यार्थी बहुत ही निराश था क्योंकि उसके पास केवल एक किलो वाट की शक्ति वाला एक्सरे यंत्र था जबकि उस समय इंग्लैण्ड में वैज्ञानिक 5 किलोवाट की शक्ति वाले एक्सरे यंत्र से कार्य कर रहे थे। डा. रमन ने उसे प्रोत्साहित करते हुए, बदले में 10 किलोवाट की शक्ति वाला मस्तिष्क प्रयोग करने का सुझाव दिया।

डा. रमन का जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है। जब भारत अंग्रेजों के अधीन था और शोध कार्य के लिए भौतिक संसाध न बहुत सीमित थे, उन्होंने अपनी प्रतिभाशाली मस्तिष्क रूपी प्रयोगशाला का ही प्रयोग किया। उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कर दिखाया कि किस तरह हमारे पूर्वजों ने मस्तिष्क के बल पर बड़े-बड़े सिद्धांतों की खोज कर डाली।

जगदीशचन्द्र बोस (1858-1937)

भारत में एक अन्य सुविख्यात वैज्ञानिक जे सी बोस हुए जिन्होंने देश को गौरव और सम्मान प्राप्त करवाया। इनका जन्म 30 नवम्बर सन् 1858 ई. में मेमनसिंह नामक जगह पर हुआ जो कि अब बंगलादेश में है। यहीं पर इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। कलकत्त के सेंट जेवियर कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1885 ई. में इनको प्रेसीडेंसी कालेज कलकत्ता में भौतिकी के सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्त किया गया, पर इन्होंने वेतन लेने से मना कर दिया क्योंकि यह वेतन अंग्रेज प्राध्यापक के वेतन का आधा था। बाद में इन्होंने वैज्ञानिक बनने का फैसला किया जिससे वे भारत के उस सम्मान को वापस ला सकेँ जो उसे प्राचीन काल में प्राप्त था। उन्होंने विद्युतीय किरणों की खूबियों का अध्ययन करने के लिए एक यंत्र बनाया। उन्हें 1917 ई. में सरदार 'नाइट' और 1920 ई. में लंदन की रायल सोसाइटी का फेलो भी बनाया गया। यह सम्मान प्राप्त करने वाले वे प्रथम भारतीय भौतिक शास्त्रवेत्ता थे।

डा. बोस पूरे विश्व में अपने यंत्र क्रेस्कोग्राफ के आविष्कारक के रूप में प्रसिद्ध हैं। यह यंत्र पौधे की वृद्धि और गति के एक मिलीमीट उन्नति के दसलाखवें हिस्से को भी दर्ज कर सकता है। उन्होंने अपने क्रेस्कोग्राफ के द्वारा लिए गए रेखाचित्रों से यह प्रमाणित किया कि पौधों में भी संचार व्यवस्था होती है। क्रेस्कोग्राफ ने यह भी सिद्ध किया कि पौधों में वृद्धि उनमें स्थित जीवित कोशिकाओं के कारण होती है। डॉ. बोस ने अनेक यन्त्र भी बनाए जो विश्व में बोस यन्त्रों के नाम से विख्यात हैं। वे यन्त्र यह सिद्ध करते हैं कि धातुएँ भी बाहरी प्रेरक के प्रति प्रतिक्रिया करती हैं और कैंची और मशीन के पुजें भी थकान अनुभव करते हैं और कुछ समय विश्राम करने के बाद प कुशलतापूर्वक कार्य करना प्रारम्भ कर देते हैं। रस की ऊपर की ओर गति उनकी जीवित कोशिकाओं के फलस्वरूप है।

क्रेस्कोग्राफ तथा बोस यंत्रों के अलावा, उनके बेतार आविष्कारों ने मारकोनी के आविष्कारों को भी पीछे छोड़ दिया। उन्होंने ही सर्वप्रथम एक बेतार कोहरर (रेडियो सिग्नल डिटेक्टर) तथा एक अन्य यंत्र बनाया जिससे विद्युतीय तरंगों का परिवर्तन ज्ञात होता है। जब किसी व्यक्ति ने उनका इस ओर ध्यान आकर्षित किया तो उन्होंने सरलता से उत्तर दिया कि यह ऐसा आविष्कार है जो मानवता के लिए आविष्कारक से भी अधिक उपयोगी है।

होमी जहांगीर भाभा (1909–1966 ई.)

डा. होमी जहांगीर भाभा एक महान वैज्ञानिक थे। वे भारत को आणविक युग में ले गये। वे भारतीय नाभिकीय विज्ञान के जनक कहलाते हैं। उनका जन्म 30 अक्टूबर, 1909 ई. को एक प्रसिद्ध पारसी परिवार में हुआ था। अपने बाल्यकाल में ही उन्होंने अपनी प्रखर बुद्धि का परिचय देना प्रारंभ कर दिया था और अनेक पुरस्कारों को प्राप्त किया। उनका प्रारंभिक अध्ययन मुंबई में हुआ। उन्होंने कैम्ब्रिज से प्रथम श्रेणी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त की, वहीं शोध कार्य पूरा किया और 1935 तक कॉस्मिक रेडिएशन से संबंधित महत्त्वपूर्ण मौलिक शोध कार्य किया। जब द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया तब वे भारत वापस आ गए।

डा. भाभा ने डा. सी वी रमन के अनुरोध पर इण्डियन इंस्टीटयूट ऑफ साइसेंज संस्था में जो बंगलूरू में स्थित थी, एक प्रवाचक के पद पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया। शीघ्र ही वे भौतिकी के प्रोफेसर बन गए। इसी समय उन्हें भौतिकी में कुछ नवीन क्षेत्रों में शोध कार्य हेतु एक शोध संस्थान बनाने का विचार आया। उन्होंने एक महान निर्णय लिया और एक पत्र सर डोराब जी टाटा को लिखा जिसमें भारत की विश्व आणविक शक्ति की नींव बनाने के लिए एक नवीन शोध संस्थान खोलने का सुझाव दिया गया था। यह संस्थान अपने विशेषज्ञ पैदा करेगा जिससे भारत को बाहरी स्रोतों पर निर्भर न रहना पड़े। परिणामस्वरूप 'टाटा इंस्टीट्यूट आफ फण्डामेंटल रिसर्च' नामक संस्थान 1965 में डा. भाभा के पैतृक निवास पर खोल दिया गया।

भारत का प्रथम आणविक शोध केन्द्र जो अब भाभा एटमिक रिसर्च सेंटर (BARC) कहलाता है, ट्राम्बे में स्थापित है। उन्हीं के विशेष मार्गदर्शन में भारत का प्रथम आणविक रिएक्टर 'अप्सरा' स्थापित हुआ। भाभा 1948 में स्थापित भाभा एटोमिक एनर्जी कमिशन के प्रथम अध्यक्ष बने आणविक शक्ति के क्षेत्र में उनके अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुमूल्य समझे जाते हैं। उन्होंने आणविक शक्ति के शांतिपूर्ण उपयोगों के लिए यू एन द्वारा प्रायोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की भी अध्यक्षता की। भारत सरकार ने उन्हें 1966 में पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया। डा. भाभा की मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हुई।

डा. विक्रम अम्बालाल साराभाई (1919-1970 ई.)

डॉ. विक्रम अम्बालाल साराभाई आधुनिक भारत की एक अन्य विशिष्ट प्रतिभा है। भारत के प्रथम उपग्रह 'आर्यभट' के प्रक्षेपण में उनका प्रमुख योगदान था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अपने माता-पिता द्वारा चलाए गए एक विद्यालय में प्राप्त की। उन्होंने डा. सी वी रमन के मार्गदर्शन में कॉस्मिक किरणों का अध्ययन किया और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। उनके कॉस्मिक किरणों के अध्ययन ने यह स्पष्ट कर दिया कि कास्मिक किरणें बाहरी अंतरिक्ष से आने वाली शक्ति कणों की एक धरा है। पृथ्वी तक आते-आते वे रास्ते में सूर्य से पृथ्वी के वातावरण से और चुंबकीय शक्ति से प्रभावित होती जाती हैं।

डा. साराभाई एक बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। वह एक महान उद्योगपति थे। आज बहुत से उद्योग उन्हीं के द्वारा स्थापित किए गए हैं जैसे साराभाई कैमिकल्ज, साराभाई ग्लास, साराभाई गेजी लिमिटेड, साराभाई मर्क लि. तथा अन्य। उन्होंने सैनिक संयंत्र और एंटीबायोटिकल तथा पेंसिलीन का भारत में निर्माण का आयोग स्थापित करके भारत के करोड़ों रुपये बचाये। इन वस्तुओं का अभी तक विदेशों से ही आयात किया जाता था। वे अहमदाबाद टैक्सटाइल इण्डस्ट्रियल एसोसिएशन तथा अहमदाबाद मनी एसोसिएशन के भी संस्थापक रहे। इस प्रकार उन्होंने एक बड़ी संख्या में सफल उद्योगों की स्थापना की।

डा. विक्रम अम्बालाल साराभाई ने कई अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्थान स्थापित किये जिनमें से कुछ इण्डियन इन्स्टीटयूट आफ मेनेजमेंट के नाम से विश्वस्तर पर प्रबंध शास्त्र के अध्ययन के लिए प्रसिद्ध हैं।

वह इण्डियन नेशनल कमीशन फॉर स्पेसरिसर्च ( INGOSPAR) तथा एटमिक रिसर्च कमीशनके अध्यक्ष थे। उन्हीं के मार्गदर्शन में धुम्बाइ क्विटेरियल रॉकेट लॉचिंग स्टेशन ( TERLS ) की स्थापना हुई। उन्होंने सेटेलाइट संचार माध्यम से गांवों तक शिक्षा को पहुंचाने की योजनाएं बनाई। उन्हें 1966 में पद्मभूषण और उनकी मृत्यु के बाद पद्म विभूषण की उपाधि प्रदान की गई। उनकी मृत्यु भारत के लिए एक महान क्षति थी।

डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम

भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 ई. में तमिलनाडु के द्वीपीय नगर रामेश्वरम में हुआ । विज्ञान और अभियान्त्रिकी के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान हेतु उन्हें भारत की सर्वोच्च उपाधि 'भारत रत्न' से 1997 में सम्मानित किया गया।

डा. कलाम की प्रारंभिक शिक्षा रामेश्वरम में ही हुई। उन्होंने रामनाथपुरम् के श्वार्ज हाई स्कूल से दसवीं कक्षा उत्तीर्ण की और मद्रास इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलोजी से एयरोनोटिकल इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त की। डॉ. कलाम ने 1963-1982 तक इण्डियन स्पेस रिसर्च ऑरगेनाइजेशन (ISRO) में कार्य किया। विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर में उन्होंने उपग्रह छोड़ने के लिए सेटेलाइट लांच विहीकल (SLV3) को विकसित किया जिसके द्वारा 1982 में 'रोहिणी' उपग्रह आकाश में छोड़ा गया। डिफेंस रिसर्च डिवेलपमेंट ऑरगेनाइजेशन (DRDO) के निदेशक के पद पर उन्हें इन्टीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डिवलपमेंट प्रोग्राम ( IGMDP) का उत्तरदायित्व सौंपा गया। उन्होंने सुरक्षा सेवाओं के लिए पांच परियोजनाएँ विकसित की पृथ्वी, त्रिशूल, आकाश, नाग और अग्नि ।

उन्होंने भारत को आत्मनिर्भरता के युग में पहुंचा दिया। सतह से सतह पर मार करने वाली मिसाईल अग्नि एक अतुलनीय उपलब्धि है। इसके सफलतापूर्वक निर्माण ने भारत को अत्यधिक विकसित देशों के क्लब का सदस्य बना दिया। 'अग्नि' के लिए जो हल्के भार वाला कार्बन तैयार किया गया था, उसका प्रयोग पोलियो के पीड़ितों के कृत्रिम अंग बनाने के लिए किया जा रहा है। इसके कारण उस उपकरण का वजन 4 किलोग्राम से घट कर 400 ग्राम रह गया है। मनुष्यों के लिये यह एक बड़ी नियामत है। इस सामग्री का उपयोग हृदयरोग के बीमारों के लिए बैलून एन्जियोप्लास्टी के अंतर्गत प्रयुक्त किये जाने वाले स्प्रिंग जैसे छल्लों के जिन्हें स्टेन्ट (Stent) कहा जाता है, निर्माण में भी किया जाता है।

डा. कलाम का जीवन भारत की आत्मा का जीवंत प्रतीक है। वह भारतीय परम्पराओं और धर्म को सच्चे अर्थों में मानने वालों में हैं। उन्होंने विज्ञान को धर्म और दर्शन के साथ जोड़ दिया। वे अंतः प्रेरणा से मार्गदर्शन प्राप्त करने में विश्वास रखते हैं अर्थात बाहरी निर्देशों के स्थान पर अन्तरात्मा की पुकार को सुनना और निष्काम भावना से अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना। डॉ. कलाम कहते हैं- मेरे पास वास्तविक अर्थों में कोई सामग्री नहीं है। मैंने कुछ भी नहीं कमाया है, कुछ भी नहीं बनाया है और मेरे पास कोई पुत्र-पुत्रियों आदि का परिवार भी नहीं है।

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